Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय स्थानपद ] [ 131 वनस्पतिकायिकों के स्थानों का निरूपण-- 160. कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा! सटाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदहिवलएस 1 / अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु 2 / उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु 3 / तिरियलोए अगडेसु तडागेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दोहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दोवेसु समुद्देसु सम्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु 4 / एत्थ णं बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / [160 प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [160 उ.] गौतम ! १-स्वस्थान की अपेक्षा से-सात घनोदधियों में और सात घनोदधिवलयों में (हैं।) २-अधोलोक में—पातालों में, भवनों में और भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में (हैं / ) ३–ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में, विमानों में, पावलिकाबद्ध विमानों में और विमानों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में (वे हैं / ) ४–तिर्यग्लोक में-कुओं में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों (चौरस बावड़ियों) में, पुष्करिणियों में, दीपिकायों में, गुजालिकाओं (वक्र—टेढ़ी मेढ़ी बावड़ियों) में, सरोवरों में, पंक्तिबद्धसरोवरों में, सर-सर-पंक्तियों में, बिलों (स्वाभाविकरूप से बनी हई कूइयो) म / में, पंक्तिबद्ध बिलों में, उभरों (पर्वतीयजल के अस्थायी प्रवाहों) में, निझरों (झरनों) में, तलैयों में, पोखरों में, क्षेत्रों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में और सभी जलाशयों में तथा जल के स्थानों में; इन (सभी स्थलों) में बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान कहे गए हैं / उपपात की अपेक्षा से (ये) सर्वलोक में है, समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में हैं और स्वस्थान की अपेक्षा से (ये) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। 161. कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! जत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं प्रपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [161 प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org