________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद) ] [407 गोयमा ! अणंता परमाणुपोग्गला, अणंता दुपदेसिया खंधा जाव प्रणता दसपदेसिया खंधा, प्रणंता संखेज्जपदेसिया खंधा, अणंता असंखेज्जपदेसिया खंधा, प्रणता प्रणतपदेसिया खंधा, से तेणठेणं गोयमा ! एवं उच्चति--ते गं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। [503 प्र.] भगवन् ! क्या वे (पूर्वोक्त रूपीअजीवपर्याय-चतुष्टय) संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ? [503 उ गौतम ! वे संख्यात नहीं असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि वे (पूर्वोक्त चतुर्विध रूपी अजीवपर्याय संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं ? [उ.] गौतम ! परमाणु-पुद्गल अनन्त हैं; द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, यावत् दशप्रदेशिकस्मन्ध अनन्त हैं, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, और अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं / हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वे न संख्यात हैं, न ही असंख्यात हैं, किन्तु अनन्त हैं। विवेचन-अजीवपर्याय के भेद-प्रभेद और पर्यायसंख्या--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 500 से 503 तक) में अजीवपर्याय, उसके मुख्य दो प्रकार, तथा अरूपी और रूपी अजीव-पर्याय के भेद एवं रूपी अजीवपर्यायों की संख्या का निरूपण किया गया है। रूपी और अरूपी प्रजीवपर्याय की परिभाषा-रूपी-जिसमें रूप हो. उसे रूपी शब्द से 'रूप' के अतिरिक्त 'गन्ध'. रस और स्पर्श का भी उपलक्षण से ग्रहण किया जाता है / प्राशय यह है कि जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो, वह रूपी कहलाता है / रूपयुक्त अजीव को रूपी अजीव कहते हैं / रूपी अजीव पुद्गल ही होता है, इसलिए रूपी अजीव के पर्याय का अर्थ हुआ-पुद्गल के पर्याय / अरूपी का अर्थ है-जिसमें रूप (रस, गन्ध और स्पर्श) का अभाव हो, जो अमूर्त हो / अतः अरूपी अजीव-पर्याय का अर्थ हुअा-अमूर्त अजीव के पर्याय / धर्मास्तिकायादि की व्याख्या-धर्मास्तिकाय-धर्मास्तिकाय का असंख्यातप्रदेशों का सम्पूर्ण (अखण्डित) पिण्ड (अवयवी द्रव्य)। धर्मास्तिकायदेश--धर्मास्तिकाय का अर्द्ध आदि भाग / धर्मास्तिकायप्रदेश-धर्मास्तिकाय के निरंश (सूक्ष्मतम) अंश / इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय आदि के त्रिकों को समझ लेना चाहिए / प्रद्धासमय अप्रदेशी कालद्रव्य / ' द्रव्यों का कथन या पर्याय का ?–पर्यायों की प्ररूपणा के प्रसंग में यहाँ पर्यायों का कथन करना उचित था, उसके बदले द्रव्यों का कथन इसलिए किया गया है कि पर्याय और पर्यायी (द्रव्य) कथंचित् अभिन्न हैं, इस बात की प्रतीति हो। वस्तुतः धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकायदेश अादि पदों के उल्लेख से उन-उन धर्मास्तिकायादि त्रिकों तथा अद्धासमय के पर्याय ही विवक्षित हैं, द्रव्य नहीं / परमाणुपुद्गल आदि को पर्याय-सम्बन्धी वक्तव्यता 504. परमाणुपोग्गलाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! परमाणुपोग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। 1. प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक 202 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 202 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org