________________ 438] [प्रज्ञापनासून [3] प्रजहण्णमणुक्कोसठितीए एवं चेव / नवरं ठितीए वि चतुट्ठाणवड़िते / [556-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थिति वाले पुद्गलों की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार कहनी चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से भी वह चतुःस्थानपतित है। 557. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! पोग्गलाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता। गोयमा ! अणंता। से केणठेणं ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए पोग्गले जहण्णगुणकालयस्स पोग्गलस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्याए चउठाणडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, प्रवसेसेहि वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि य छट्ठाणवडित, से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति जहण्णगुणकालयाणं पोग्गलाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। [557-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [557-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि जघन्यगुण काले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ?) उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला पुद्गल, दूसरे जघन्यगुण काले पुद्गल से द्रव्य को अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है; स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है; कृष्णवर्ण के पर्यायों की दृष्टि से तुल्य है, शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शो के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। हे गौतम! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुण काले पुद्गलों के अनन्त पर्याय कहे हैं। / [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि। [557-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले पुद्गलों को पर्याय-सम्बन्धी वक्तव्यता समझनी चाहिए। [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्टाणे छट्ठाणवड़िते / [557-3] मध्यमगुण काले पुद्गलों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। वशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है / 558. एवं जहा कालवण्णपज्जवाणं वत्तव्वया भणिता तहा सेसाण वि वण्ण-गंध-रसफासपज्जवाणं वत्तव्वया भाणितव्वा, जाव अजहण्णमणुक्कोसलुक्खे सट्टाणे छट्ठाणडिते / से तं रूविग्रजीवपज्जवा / से तं अजीवपज्जवा। // पण्णवणाए भगवईए पंचमं विसेसपघं (पज्जवपयं) समत्तं // [558] जिस प्रकार कृष्णवर्ण के पर्यायों के विषय में वक्तव्यता कही है उसी प्रकार शेष वर्गों, गन्धों, रसों और स्पों की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए; यावत् अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण रूक्षस्पर्श स्वस्थान में षट्स्थानपतित है, यहाँ तक कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org