Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ [ प्रज्ञापनासूत्र 625. एवं जहा उववानो भणितो तहा उध्वट्टणा वि सिद्ध वज्जा भाणितवा जाव वेमाणिता। नवरं जोइसिय-वेमाणिएसु चवणं ति अभिलावो कातन्वो / दारं 3 // [625] इस प्रकार जैसे उपपात (के विषय में कहा गया है, वैसे ही सिद्धों को छोड़कर उद्वर्त्तना (के विषय में) भी यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विशेष यह है कि ज्योतिष्कों और वैमानिकों के लिए 'च्यवन' शब्द का प्रयोग (अभिलाप) करना चाहिए। तृतीय सान्तर द्वार / / 3 / / विवेचन-तीसरा सान्तरद्वार-रयिकों से लेकर सिद्धों तक की उत्पत्ति और उद्वर्तना का सान्तर-निरन्तरनिरूपण-प्रस्तुत 17 सूत्रों (सू. 606 से 625 तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक देव पर्यन्त चौवीस दण्डकों और सिद्धों की सान्तर और निरन्तर उत्पत्ति एवं उद्वर्त्तना की प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष-पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक पांच प्रकार के एकेन्द्रियों को छोड़ कर समस्त संसारी एवं सिद्ध जीवों की सान्तर और निरन्तर दोनों प्रकार से उत्पत्ति और उद्वर्तना होती है। किन्तु सिद्धों की उत्पत्ति भी सान्तर-निरन्तर होती है, किन्तु उद्वर्त्तना कभी नहीं होती।' सान्तर और निरन्तर उत्पत्ति की व्याख्या-बीच-बीच में कुछ समय छोड़कर व्यवधान से उत्पन्न होना सान्तर उत्पन्न होना है, और प्रतिसमय लगातर--विना व्यवधान के उत्पन्न होना, बीच में कोई भी समय खाली न जाना निरन्तर उत्पन्न होना है / चतुर्थ एक समयद्वार : चौबीसदण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों की एक समय में उत्पत्ति और उद्वर्तना की संख्या को प्ररूपणा 626. नेरइया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया उघवजंति ? गोयमा! जहण्णणं एगो वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उचवज्जति / [626 प्र.] भगवन् ! एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? [626 उ.] गौतम ! जघन्य (कम से कम) एक, दो या तीन और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं / 627. एवं जाव अहेसत्तमाए। [627] इसी प्रकार सातवीं नरकपृथ्वी तक समझ लेना चाहिए / 628. असुरकुमारा णं भंते ! एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा बा। [628 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? 1. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 166 से 168 तक 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 208, (ख) प्रज्ञापना प्र. बो. टोका भा. 2, पृ. 976-977 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org