________________ 42] [ प्रज्ञापनासूत्र में अन्तिम बार है, वह उस गति की अपेक्षा से गतिचरम है / जैसे-पृच्छा के समय कोई जीव नरकगति में विद्यमान है, किन्तु नरक से निकलने के बाद फिर कभी नरकगति में उत्पन्न नहीं होगा, उसे (विशेषापेक्षया) 'नरकगतिचरम' कहा जा सकता है, किन्तु सामान्यतया उसे 'गतिचरम' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नरकगति से निकलने पर उसे दूसरी गति में जन्म लेना ही पड़ेगा। अतएव सामान्य गतिचरम मनुष्य ही होता है। सामान्य जीव विषयक जो गतिचरम सुत्र है, वहाँ सामान्यदृष्टि से मनुष्य को ही कथंत्रित गतिचरम समझना चाहिए। परन्तु यहाँ आगे के जितने भी सूत्र हैं, वे विशेषदृष्टि को लेकर हैं, इसलिए गतिचरम का अर्थ हुआ-जो जीव जिस गतिपर्याय से निकल कर पुनः उसमें उत्पन्न नहीं होगा, वह उस गति की अपेक्षा से गतिचरम है और जो पुनः उसमें उत्पन्न होगा, वह उस गति की अपेक्षा से गतिअचरम है।' (2) स्थिति-चरम-अचरम-स्थितिपर्याय रूप चरम को स्थितिचरम कहते हैं। जो नारक जीव घृच्छा के समय जिस स्थिति (आयु) का अनुभव कर रहा है, वह स्थिति अगर उसकी अन्तिम है, फिर कभी उसे वह स्थिति प्राप्त नहीं होगी तो वह नारक स्थिति की अपेक्षा चरम कहलाता है / यदि भविष्य में फिर कभी उसे उस स्थिति का अनुभव करना पड़ेगा तो वह स्थिति-अचरम (3) भव-चरम-अचरम-भवपर्यायरूप चरम भवचरम है। अर्थात्-पृच्छाकाल में जिस नारक आदि जीव का वह वर्तमान भव अन्तिम है, वह भवचरम है और जिसका वह भव अन्तिम नहीं है, वह भव-अचरम है / बहुत-से नारक ऐसे भी हैं, जो वर्तमान नारकभव के पश्चात् पुनः नारकभव में उत्पन्न नहीं होंगे, वे भवचरम हैं, किन्तु जो नारक भविष्य में पुनः नारकभव में उत्पन्न होंगे, वे भव-अचरम हैं। (4) भाषा-चरम-प्रचरम-जो जीव भाषा की दृष्टि से वरम हैं, अर्थात्--जिन्हें यह भाषा अन्तिम रूप में मिली है, फिर कभी नहीं मिलेगी, वे भाषाचरम हैं, जिन्हें फिर भाषा प्राप्त होगी, वे भाषा-अचरम हैं / एकेन्द्रिय जीव भाषा रहित होते हैं, क्योंकि उन्हें जिह्वन्द्रिय प्राप्त नहीं होती, इसलिए वे भाषाचरम या भाषा-अचरम की कोटि में परिगणित नहीं होते / (5) प्रान-प्राण (श्वासोच्छ्वास)-चरम-अचरम-ग्रानप्राणपर्यायरूप चरम अानप्राणचरम कहलाता है / पृच्छा के समय जो जीव उस भव में अन्तिम श्वासोच्छ्वास ले रहा होता है, उसके बाद उस भव में फिर श्वासोच्छ्वास नहीं लेगा, वह श्वासोच्छ्वासचरम है, उससे भिन्न जो हैं, वे श्वासोच्छ्वास-अचरम हैं। (6) प्राहार-चरम-अचरम--आहारपर्यायरूप चरम को प्राहारचरम कहते हैं / सामान्यतया आहारचरम मुक्त मनुष्य होते हैं / विशेषतया उस गति या भव की दृष्टि से जो अन्तिम आहार ले रहा हो, वह उस गति या भव की अपेक्षा आहारचरम है, जो उससे भिन्न हो, वह पाहारअचरम है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति., पत्रांक 245 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 245-246 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org