________________ दसवां चरमपद ] [41 [828-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक स्पर्शचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम है ? [828-1 उ.] गौतम ! (एक नैरयिक स्पर्शचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए / [828-2] लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (निरूपण करना चाहिए / ) 826. [1] णेरइया णं भंते ! फासचरिमेणं कि चरिमा प्रचरिमा? गोयमा! चरिमा वि अचरिमा वि / [829-1 प्र.] भगवन् (अनेक) नैरयिक स्पर्शचरम की अपेक्षा से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [829-1 उ.] गौतम ! (स्पर्शचरम की अपेक्षा से अनेक नैरयिक) चरम भी हैं और प्रचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। संगहणिगाहा–पति ठिति भवे य भासा प्राणापाणुचरिमे य बोद्धध्वे / पाहार भावचरिमे वण रसे गंध फासे य // 11 // // पण्णवणाए भगवईए दसमं चरिमपयं समत्तं / / [829-2] इसी प्रकार (को प्ररूपणा) लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक (करनी चाहिए।) [संग्रहणीगाथार्थ-] 1. गति, 2. स्थिति, 3. भव, 4. भाषा, 5. आनापान (श्वासोच्छवास), 6. पाहार, 7. भाव, 8. वर्ण, 6. गन्ध, 10. रस और 11. स्पर्श, (इन ग्यारह द्वारों की अपेक्षा से जीवों की चरम-अचरम प्ररूपणा) समझनी चाहिए / / 161 // विवेचन-गति प्रादि ग्यारह को अपेक्षा से जीवों के चरमाचरमत्व का निरूपण--प्रस्तुत 23 सूत्रों (मू. 807 से 829 तक) में गति आदि ग्यारह द्वारों को अपेक्षा से चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के चरम-अचरम का निरूपण किया गया है / गतिचरम प्रादि पदों को व्याख्या-(१) गतिचरम-गतिप्रचरम-गतिपर्यायरूप चरम को गतिचरम कहते हैं / प्रश्न के समय जो जीव मनुष्यगति में विद्यमान है और उसके पश्चात् फिर कभी किसी गति में उत्पन्न नहीं होगा, अपितु मुक्ति प्राप्त कर लेगा, इस प्रकार उस जीव की वह मनुष्यगति चरम अर्थात् अन्तिम है, वह गतिचरम है, जो जीव पृच्छाकालिक गति के पश्चात् पुनः किसी गति में उत्पन्न होगा, वही गति जिसकी अन्तिम नहीं है, वह गति-अचरम है। सामान्यतया गतिचरम मनुष्य ही हो सकता है, क्योंकि मनुष्यगति से हो मुक्ति प्राप्त होती है / इस दृष्टि से तद्भवमोक्षगामी जोव गतिचरम है, शेष गति-अवरम हैं / विशेष को दृष्टि से विचार किया जाय तो जो जोव जिस गति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org