________________ 12] [ प्रज्ञापनासूत्र दोनों मिल कर विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार लोक के चरमखण्ड पाठ हैं और अचरमखण्ड एक ही है, दोनों मिल कर नौ होते हैं। इसी प्रकार अलोक के भी चरम और अचरमखण्ड मिल कर 13 हैं / इन दोनों को मिला दिया जाए तो बाईस होते हैं / यह बाईस की संख्या बारह से दुगुनी, तिगुनी आदि नहीं है, अत: विशेषाधिक ही है। प्रदेशों की दृष्टि से सबसे कम लोक के चरमान्तप्रदेश हैं, क्योंकि उसमें पाठ ही प्रदेश हैं। उनकी अपेक्षा अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं। उनसे लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अचरम क्षेत्र बहुत अधिक है, इस कारण उसके प्रदेश भी बहुत अधिक हैं। उनकी अपेक्षा अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वह क्षेत्र अनन्तगुणा है। उनकी अपेक्षा भी लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं, क्योंकि अलोक के अचरमान्तप्रदेशों में लोक के चरमान्तप्रदेशों को, अचरमान्त प्रदेशों को तथा अलोक के चरमान्तप्रदेशों को मिला देने पर भी वे सब असंख्यात ही होते हैं और असंख्यात, अनन्त राशि की अपेक्षा कम हो है, अतएव उन्हें उनमें सम्मिलित कर देने पर भी वे अलोक के अचरमान्तप्रदेशों से विशेषाधिक ही होते हैं। द्रव्य और प्रदेशों की दृष्टि से अल्पबहुत्व का पूर्वोक्त युक्ति से स्वयं विचार कर लेना चाहिए। लोक के चरमखण्डों की अपेक्षा से अलोक के चरमखण्ड विशेषाधिक हैं और उनकी अपेक्षा लोक और अलोक का अचरम और उनके चरमखण्ड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं / इसका कारण पूर्ववत् है। उनकी अपेक्षा लोक के चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगणे हैं। यक्ति पर्ववत है। उनकी अपेक्षा लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं / लोक और अलोक के चरम और अचरमप्रदेशों की अपेक्षा सब द्रव्य मिलकर विशेषाधिक हैं, क्योंकि अनन्तानन्तसंख्यक जीवों, परमाणु आदि, तथा अनन्त परमाण्वात्मक स्कन्ध पर्यन्त सब पृथक् पृथक् भी (प्रत्येक) अनन्त-अनन्त हैं और वे सभी द्रव्य हैं। समस्त द्रव्यों की अपेक्षा सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं और सब प्रदेशों की अपेक्षा सर्व पर्याय अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रदेश के स्वपरपर्याय अनन्त हैं। यह सब स्पष्ट है। परमाणुपुद्गलादि की चरमाचरमादि-वक्तव्यता 781. परमाणपोग्गले णं भंते ! कि चरिमे 1 प्रचरिमे 2 प्रवत्तन्वए 3 ? चरिमाइं 4 प्रचरिमाइं 5 अवत्तव्ययाइं 6 ? उदाहु चरिमे य प्रचरिमे य 7 उदाहु चरिमे य अचरिमाइं च 8 उदाहु चरिमाइं च अचरिमे य 6 उदाहु चरिमाइं च अचरिमाई च 10? पढमा चउभंगी, उदाहु चरिमे य अवत्तब्वए य 11 उदाहु चरिमे य अवत्तवयाई च 12 उदाह चरिमाई च प्रवत्तव्वए य 13 उदाहु चरिमाइं च प्रवत्तव्वयाइं च 14 ? बीया चउभंगी। उदाहु अचरिमे य प्रवत्तव्यए य 15 उदाहु अचरिमे य प्रवत्तव्वयाई च 16 उदाहु अचरिमाइं च प्रवत्तव्बए य 17 उदाहु अचरिमाइं च अवतब्बयाई च 18 ? तइया चउभंगी। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृति, पत्रांक 232 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org