________________ 28] [प्रज्ञापनासूत्र है और विश्रेणी में स्थित पृथक्-पृथक् दो परमाणुओं के कारण वह अनेक प्रवक्तव्य भी है। इस प्रकार इन तीनों के समुदितरूप में सप्तप्रदेशीस्कन्ध को एक चरम, एक, अचरम एवं अनेक अवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। इसमें 21 वाँ भंग कथंचित् एक चरम, अनेक अचरम और एक अवक्तव्यरूप भी घटित होता है। वह इस प्रकार जब सात प्रकाशप्रदेशों में उसका अवगाहन होता है, तब उसकी स्थापना के अनुसार 10 | 0 deg0 समश्रेणी में स्थित उभयपर्यन्तवर्ती एक-एक परमाणु की अपेक्षा से वह 'चरम' है, मध्यवर्ती दो परमाणुओं की अपेक्षा से वह अनेक अचरमरूप है और विश्रेणी में स्थित एक परमाणु के कारण वह अवक्तव्य है। इन तीनों के समुदायरूप सप्तप्रदेशी स्कन्ध को एक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य कहा जा सकता है। यों सप्तप्रदेशी स्कन्ध में 17 भंगों के सिवाय शेष 9 भंग नहीं पाए जाते।' अष्टप्रदेशीस्कन्ध में 18 भंग--इस स्कन्ध में 17 भंग तो सप्तप्रदेशी स्कन्ध में जो बताए गए हैं, वे ही हैं / केवल 22 वा भंग-एक चरम, अनेक (दो) अचरम और अनेक (दो) प्रवक्तव्य अधिक है। 22 वाँ भंग इस प्रकार घटित होता है-पाठ आकाशप्रदेशों में जब अष्टप्रदेशीस्कन्ध अवगाहन करता है, तब उसकी स्थापना | 0 0 के अनुसार समश्रेणी में स्थित पर्यतवर्ती परमाणुनों की अपेक्षा से चरम, मध्यवर्ती दो परमाणुओं की अपेक्षा से दो अचरम एवं विश्रेणी में स्थित दो परमाणुओं के कारण दो प्रवक्तव्य होते हैं। इन तीनों के समुदायरूप अष्टप्रदेशीस्कन्ध का एक चरम, अनेक अचरम तथा अनेक अवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। इस प्रकार अष्टप्रदेशीस्कन्ध में 18 भंग होते हैं, शेष 8 भंग इसमें नहीं पाये जाते / / ___ असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्तानन्त स्कन्धों का अवगाहन कैसे- यहाँ एक शंका उपस्थित होती है कि समग्र लोक तो असंख्यात प्रदेशात्मक है, उसमें असंख्यात प्रदेशात्मक और अनन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों का अवगाहन कैसे हो जाता है ? इसका समाधान है, लोक का माहात्म्य ही ऐसा है कि केवल ये दो स्कन्ध नहीं, बल्कि अनन्तानन्त द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर अनन्तानन्त संख्यातप्रदेशी, अनन्तानन्त असंख्यातप्रदेशी और अनन्तानन्त अनन्तप्रदेशी स्कन्ध इसी एक लोक में ही अवगाढ होकर उसी तरह रहते हैं, जिस तरह एक भवन में एक दीपक की तरह हजारों दीपकों की प्रभा के परमाणु रहते हैं। संस्थान की अपेक्षा से चरमादि की प्ररूपणा-- 761. कति णं भंते ! संठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच संठाणा पण्णत्ता / तं जहा-परिमंडले 1 वट्टे 2 तंसे 3 चउरसे 4 प्रायते 5 / [761 प्र.] भगवन् ! संस्थान कितने कहे गए हैं ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पृ. 240 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ टिप्पण), पृ. 199 से 201 2. प्रज्ञापना. म. वत्ति, पत्रांक 234 से 239 तक 3. बही, म. वृत्ति, पत्रांक 242 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org