________________ दसवाँ चरमपद ] [ 35 पृथ्वी के समान इन संस्थानों की अनेक अवयवों के अविभागात्मक रूप में विवक्षा की जाए तो ये प्रत्येक एक अचरम हैं, अनेक चरमरूप हैं तथा प्रदेशों की विवक्षा की जाए तो चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश हैं।' पूर्वोक्त पांच विशेषणों से युक्त परिमण्डलादि का अचरमादिचार की दृष्टि से अल्पबहुत्व-- संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ आदि पूर्वोक्त पांच विशेषणों से युक्त परिमण्डल आदि 5 संस्थानों के अचरम, अनेकचरम, चरमान्तप्रदेश एवं अचरमान्तप्रदेश, इन चारों के अल्पबहुत्व का विचार किया है-द्रव्य, प्रदेश तथा द्रव्य-प्रदेश दोनों की दृष्टि से / इन पांचों में से तीसरे और पांचवें को छोड़ कर बाकी के अचरमादि चार की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का उत्तर प्रायः एक-सा ही है, जैसे-द्रव्य की अपेक्षा से एक अचरम सबसे अल्प है, उससे अनेक चरम संख्यातगुण हैं, उनसे एक अचरम और अनेक चरम दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा- सबसे कम चरमान्तप्रदेश हैं, अचरमान्तप्रदेश उनसे संख्यात गणे अधिक हैं, उनसे चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं तथा द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व का क्रम और निर्देश इसी प्रकार है। शेष दो (असंख्यातप्रदेशी--असंख्यातप्रदेशावगाढ़ तथा अनन्तप्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़) के अचरमादि चार की दृष्टि से अल्पबहुत्व का विचार रत्नप्रभापृथ्वी के चरमादिविषयक अल्पबहत्व के समान है / इसमें दो जगह अन्तर पड़ता है, पूर्व में जहाँ अनेक चरम और अचरमान्तप्रदेश को उपर्य क्त में संख्यातगणा बताया है, वहाँ यहाँ पर अनेक चरम और अचरमान्तप्रदेश को असंख्यात. गुणा अधिक बताया गया है। शेष सब पूर्ववत् ही है। एक अचरम से अनेक चरम को संख्यातगुण अधिक इसलिए बताया है कि समग्ररूप से परि. मण्डलादि संस्थान संख्यातप्रदेशात्मक होते हैं। _ 'संक्रम में अनन्तगुणा' का तात्पर्य-जब क्षेत्रविषयक चिन्तन से द्रव्यचिन्तन के प्रति संक्रमण अर्थात् परिवर्तन होता है, तब बहुवचनान्त चरम अनन्तगुणे होते हैं। उसकी वक्तव्यता इस प्रकार है-सबसे कम एक अचरम है, क्षेत्रत: बहुवचनान्त चरम असंख्यातगुणे हैं और द्रव्यतः अनन्तगुणे हैं। उनसे अचरम और बहुवचनान्त चरम दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। इस प्रकार की अल्पबहुत्वविषयक विशेषता केवल दो प्रकार के परिमण्डलादि संस्थानों में है---(१) अनन्तप्रदेशी-संख्यातप्रदेशावगाढ़ संस्थान में और अनन्तप्रदेशी-असंख्यातप्रदेशावगाढ़ संस्थान में / गति आदि की अपेक्षा से जीवों की चरमाचरमवक्तव्यता 807. जीवे णं भंते ! गतिचरिमेणं कि चरिमे प्रचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे / [807 प्र.] भगवन् ! जीव गतिचरम (की अपेक्षा से) चरम है अथवा अचरम है ? [807 उ.] गौतम ! (जीव गतिचरम की अपेक्षा से) कथंचित् (कोई) चरम है, कथंचित् (कोई) अचरम है। 1. (क) पग्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ) पृ. 202-203 (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 244 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 3, पृ. 202 से 204 तक (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 244 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org