________________ A0 दसवां चरमपद 812. [1] णेरइए णं भंते ! भवचरिमेणं कि चरिमे प्रचारमे ? गोयमा! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे / [812-1 प्र. भगवन् ! (एक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम है या अचरम ? [812-1 उ.] गौतम ! (भवचरम की दृष्टि से एक नैरयिक) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए। [812-2] (यों) लगातार (एक) वैमानिक तक इसी प्रकार (कहना चाहिए।) 813. [1] रइया णं भंते ! भवचरिमेणं किं चरिमा प्रचरिमा? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि। [813-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम हैं या अचरम हैं ? [813-1 उ.] गौतम! (अनेक नैरयिक जीव भवचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [813-2] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। 814. [1] रइए णं भंते ! भासाचरिमेणं कि चरिमे प्रचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे। [814-1 प्र.] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (एक) नै रयिक चरम है या अचरम? [814-1 उ.] गौतम ! (भाषाचरम की दृष्टि से) एक नैरयिक कथंचित् चरम है तथा कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए। [814-2] इसी तरह लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। 815. [1] रतिया णं भंते भासाचरिमेणं कि चरिमा प्रचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि / [815-1 प्र] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (अनेक) नैरयिक चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [815-1 उ.] गौतम ! (वे भाषाचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं एगिदियवज्जा निरंतरं जाव वेमाणिया। [815-2] एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर यावत् वैमानिक देवों तक लगातार इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org