________________ 24 ] [ प्रज्ञापनासूत्र अचरम--एक प्रवक्तव्य, और 18. अनेक अचरम–अनेक प्रवक्तव्य / त्रिकसंयोगी-८ भंग--१६. एक चरम, एक अचरम, एक प्रवक्तव्य, 20. एक चरम, एक अचरम, अनेक अवक्तव्य, 21. एक चरम, अनेक अचरम, एक प्रवक्तव्य, 22. एक चरम, अनेक अचरम, अनेक अवक्तव्य, 23. अनेक चरम, एक अचरम, एक प्रवक्तव्य, 24. अनेक चरम, एक अचरम, अनेक प्रवक्तव्य, 25. अनेक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य, 26. अनेक चरम, अनेक अचरम, अनेक अवक्तव्य / ' परमाणुपुद्गल प्रवक्तव्य ही क्यों ?–भगवान् ने उपर्युक्त 26 भंगों में से परमाणुपुद्गल को केवल तृतीय भंग नियमतः प्रवक्तव्य' बताया है, शेष पच्चीस भंग उसमें घटित नहीं होते। इसका कारण यह है कि चरमत्व दूसरे की अपेक्षा रखता है, यहाँ किसी दूसरे की विवक्षा न होने से अपेक्षणीय कोई दूसरा पदार्थ है नहीं। इसके अतिरिक्त एक परमाणुपुद्गल सांश (अनेक अंशोंअवयवों वाला) भी नहीं है, जिससे कि अंशों की अपेक्षा से उसके चरमत्व की कल्पना की जा सके, परमाणु तो निरंश-निरवयव है। परमाणु अचरम (मध्यम) भी नहीं है, क्योंकि निरवयव होने से उसका मध्यभाग होता नहीं है। इसी कारण परमाणु को नियम से प्रवक्तव्य कहा गया है। अथोत-न तो उसे चरम कहा जा सकता है, न हो अचरम / जो चरम या अचरम शब्द से वक्तव्यकहने योग्य-न हो, वह अवक्तव्य होता है। द्विप्रदेशीस्कन्ध में दो भंग-द्विप्रदेशीस्कन्ध में केवल प्रथम (एक चरम) और तृतीय (एक प्रवक्तव्य), ये दो भंग ही घटित होते हैं, शेष चौबीस भंग नहीं। इसको चरम कहने का कारण यह है कि द्विप्रदेशीस्कन्ध जब दो आकाशप्रदेशों में समश्रेणि में स्थित होकर अवगाढ़ होता है तब उसके दो परमाणुओं में से एक परमाणु की अपेक्षा चरम होता है, दूसरा परमाणु भी प्रथम परमाणु की अपेक्षा चरम होता है। इस कारण द्विप्रदेशीस्कन्ध चरम कहलाता है, किन्तु द्विप्रदेशीस्कन्ध अचरम नहीं कहलाता, क्योंकि समस्त द्रव्यों का भी केवल अचरमत्व सम्भव नहीं है / द्विप्रदेशीस्कन्ध कथंचित् प्रवक्तव्य तब होता है, जब वह एक ही प्राकाशप्रदेश में प्रवगाढ़ होता है, उस समय वह विशेष प्रकार के एकत्वपरिणाम से परमाणुवत् परिणत होता है / इस कारण द्विप्रदेशीस्कन्ध को उस समय चरम या अचरम कहने का कोई कारण नहीं होता। इसलिए उसे न चरम कहा जा सकता है और न अचरम, उसे उस समय 'प्रवक्तव्य' ही कहा जा सकता है। त्रिप्रदेशीस्कन्ध में चार भंग-त्रिप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम भंग-'चरम' और भंग-- 'प्रवक्तव्य' पूर्वोक्त द्विप्रदेशी की युक्ति के अनुसार समझना चाहिए। फिर नौवाँ भंग-'दो चरम और एक अचरम' पाया जाता है। जब त्रिप्रदेशीस्कन्ध समश्रेणि में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है, तब उसके आदि और अन्त के दो परमाणु पर्यन्तवर्ती होने के कारण चरम (द्वय) होते हैं और मध्यम परमाणु मध्यवर्ती होने के कारण अचरम होता है ! अतः त्रिप्रदेशीस्कन्ध कथंचित् दो चरम और एक अचरमरूप कहा जाता है। इसमें दसवाँ भंग-'बहुत चरम और बहुत अचरम' घटित नहीं हो सकता, क्योंकि तीन प्रदेशों वाले स्कन्ध में (बहुवचनान्त) अनेक चरम और अनेक अचरम नहीं हो सकते। ग्यारहवाँ भंग उसमें घटित होता है। वह इस प्रकार है--कथंचित् चरम और प्रवक्तव्य / जब त्रिप्रदेशीस्कन्ध समश्रेणी और विश्रेणी में इस प्रकार अवगाढ़ होता है, तब उसके दो परमाणु समश्रेणी में स्थित होने के कारण दो प्रदेशों में अवगाढ़ द्विप्रदेशो स्कन्ध के समान चरम कहे जा सकते हैं और एक परमाणु विश्रेणी में स्थित होने के कारण चरम 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, प. 240 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ टिप्पण) पृ. 199 से 201 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org