________________ देसवाँ चरमपद / [ 11 होता है, तथापि द्रव्य की अपेक्षा से वह एक है, जबकि चरमखण्डों में प्रत्येक (खण्ड) असंख्यातप्रदेशी होता है, अत: चरम और अचरम द्रव्य के समुदाय की अपेक्षा चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा भी अचरमान्तप्रदेश (पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार) असंख्यातगुणे हैं। उनसे भी चरमान्त प्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, दोनों मिलकर (पूर्ववत्) विशेषाधिक होते हैं। रत्नप्रभापृथ्वी के चरमाचरमादि के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की तरह ही शर्कराप्रभा से लेकर लोक तक के चरमाचरमादि का अल्पबहुत्व समझना चाहिए।' अलोक के चरम-अचरमादि का अल्पबहुत्व--द्रव्य की अपेक्षा से सबसे कम अलोक का अचरम है, इसकी अपेक्षा चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं, अचरम और चरम खण्ड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की दृष्टि से सबसे कम अलोक के चरमान्तप्रदेश हैं, क्योंकि निष्कुट प्रदेशों में ही उनका सद्भाव होता है। इन चरमान्तप्रदेशों की अपेक्षा अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अलोक अनन्त है। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं, क्योंकि चरमान्तप्रदेश, अचरमान्तप्रदेशों के अनन्तवें भागमात्र होते हैं। उन्हें अचरमान्तप्रदेशों में सम्मिलित कर देने पर भी वे सब मिलकर अचरमान्तप्रदेशों से विशेषाधिक ही होते हैं। द्रव्य और प्रदेश दोनों की दृष्टि से-सबसे कम अलोक का एक अचरम है। उसकी अपेक्षा चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं / अचरम और चरम खण्ड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं और उनसे भी अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिल कर विशेषाधिक हैं। लोकालोक के चरमाचरमादि का अल्पबहुत्व-द्रव्य की अपेक्षा से सबसे कम लोक और अलोक का एक-एक अचरम = अचरमखण्ड है, क्योंकि वह एक ही है। उसकी अपेक्षा लोक के चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं। उससे अलोक के चरमखंड विशेषाधिक हैं। उनसे लोक का और प्रलोक का अचरमखण्ड एवं (बहत) चरमखंड मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा सब से कम लोक के चरमान्तप्रदेश हैं. उनसे अलोक के चरमान्त प्रदेश विशेषाधिक हैं। उनसे लोक के अचरमान्त प्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनसे अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणित हैं। उनसे लोक के और अलोक के चरमान्त प्रदेश और अचरमान्त प्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ की अपेक्षा सबसे कम लोक और अलोक का द्रव्यापेक्षया एक-एक अचरमखंड है। उससे लोक के चरमखंड असंख्यातगुणित हैं / उनसे अलोक के चरमखंड विशेषाधिक हैं। उनसे लोक और अलोक के अचरमखंड और घरमखंड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं, इत्यादि / वास्तव में लोक के चरमखण्ड असंख्यात हैं, फिर भी पृथ्वी की स्थापना [] इस प्रकार की होने से वे आठ माने जाते हैं / वे इस प्रकार हैं-एक-एक चारों दिशाओं में और एक-एक चारों विदिशाओं में / अलोक के चरमखण्ड अलोक की स्थापना की परिकल्पना के आधार पर बारह जाते हैं यह बारह संख्या आठ से न तो दुगुनी है, और न ही तिगुनी, अत: यह विशेषाधिक ही कही जा सकती है। अलोक के चरमखण्डों की अपेक्षा लोक और अलोक का अचरम और उनके चरमखण्ड, 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 231 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 232 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org