Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [ 481 कुमारादि भवनवासी देवों की उत्पत्ति, 4. पृथ्वीकायिकादि पंचविध एकेन्द्रियों की उत्पत्ति, 5. त्रिविध विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति, 6. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों की उत्पत्ति, 7. मनुष्यों की उत्पत्ति, (8) वाणव्यन्त र, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की उत्पत्ति / निष्कर्ष सामान्य नैरयिकों और रत्नप्रभा के नैरयिकों में देव, नारक, पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रिय स्थावर, त्रिविध विकलेन्द्रिय तथा असंख्यातवर्षायुष्क चतुष्पद खेचरों तथा शेष पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में भी अपर्याप्तकों एवं सम्मूच्छिम मनुष्यों तथा गर्भजों में अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज मनुष्यों तथा कर्मभूमिजों में जो भी असंख्यातवर्षायुष्कों तथा संख्यातवर्षायुष्कों में भी अपर्याप्तक मनुष्यों से उत्पन्न होने का निषेध किया है, शेष से उत्पत्ति का विधान है। शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में सम्मूच्छिमों से, वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में भुजपरिसॉं से, पंकप्रभा के नैरयिकों में खेचरों से, धूमप्रभा-नैरयिकों में चतुष्पदों से, तमःप्रभा-नैरयिकों में उर:परिसॉं से तथा तमस्तमापृथ्वी के नैरयिकों में स्त्रियों से (पाकर) उत्पन्न होने का निषेध है / भवनवासियों में देव, नारक, पृथ्वीकायिकादि पांच, त्रिविध विकलेन्द्रिय, अपर्याप्त तिर्यक्पंचेन्द्रियों तथा सम्मूच्छिम एवं अपर्याप्तक गर्भज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है, शेष का विधान है। पृथ्वी-जल-वनस्पतिकायिकों में सर्व नैरयिक तथा सनत्कुमारादि देवों से एवं तेजो-वाय-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों में सर्व नारकों, सभी देवों से उत्पत्ति का तिर्यक् पंचेन्द्रियों में आनतादि देवों से उत्पत्ति का निषेध है। मनुष्यों में सप्तमनरकपृथ्वी के नारकों तथा तेजोवायुकायिकों से उत्पत्ति का निषेध है। व्यन्तरदेवों में देव, नारक, पृथ्वी आदि पंचक, विकलेन्द्रियत्रिक, अपर्याप्त तिथंच पंचेन्द्रिय तथा सम्मच्छिम एवं अपर्याप्त गर्भज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है / ज्योतिष्कदेवों में सम्मूच्छिम तिर्यक पंचेन्द्रिय, असंख्यातवर्षायुष्क खेचर तथा अन्तद्वीपज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है / सौधर्म और ईशानकल्प के देवों में तथा सनत्कुमार से सहस्रारकल्प तक के देवों में अकर्मभूमिक मनुष्यों से भी उत्पत्ति का, प्रानत आदि में तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों से, नौ ग्रे वेयकों में असंयतों तथा संयतासंयतों एवं विजयादि पंच अनुत्तरोपपातिकों में मिथ्यादृष्टि मनुष्यों तथा प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है।' 'कुतोद्वार' की प्ररूपणा का उद्देश्य-कौन-कौन जीव कहाँ से, अर्थात्-किन-किन भवों से उद्वर्त्तना (मृत्यु प्राप्त) करके नारकादि पर्यायों में (पाकर) उत्पन्न होते हैं ? यही प्रतिपादन करना कुतोद्वार का उद्देश्य और विशेष अर्थ है / 2 छठा उद्वर्तनाद्वार : चातुर्गतिक जीवों के उद्वर्तनानन्तर गमन एवं उत्पाद की प्ररूपणा 666. [1] नेरइया णं भंते ! अणंतरं उववट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहि उववज्जति ? कि नेरइएसु उववज्जति ? तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति ? मणुस्सेसु उववज्जति ? देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! णो नेरइएसु उववज्जति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, मणुस्सेसु उववज्जंति, नो देवेसु उववज्जंति। [666-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव अनन्तर (साक्षात् या सीधा) उद्वर्तन करके (निकल 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 214 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका भा. 2, पृ. 1007 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org