________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद | / 493 विवेचन–पाठवां प्राकर्षद्वार : सभी जीवों के छह प्रकार के प्रायुष्यबन्ध, उनके प्राकर्षों की संख्या और अल्पबहुत्व-प्रस्तुत अष्टमद्वार में नौ सूत्रों (सू. 684 से 692 तक) द्वारा तीन तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं 1. जीवसामान्य के तथा नारकों से वैमानिकों तक का छह प्रकार का आयुष्यबन्ध / 2. जीवसामान्य तथा नारकादि वैमानिकपर्यन्त जीवों द्वारा जातिनामनिधत्तायु आदि छहों का जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट पाठ आकर्षों से बन्ध की प्ररूपणा। 3. जातिनामनिधत्तायु आदि प्रत्येक प्रायु को जघन्य-उत्कृष्ट आकर्षों से बांधने वाले जीवों का अल्पबहुत्व। आयुष्यबन्ध के छह प्रकारों का स्वरूप-(१) जातिनामनिधत्तायु-जैनदृष्टि से एकेन्द्रियादिरूप पांच प्रकार की जातियां हैं। वे नामकर्म की उत्तरप्रकृतिविशेष रूप है, उस 'जातिनाम' के साथ निधत्त अर्थात्-निषिक्त जो आयु हो, वह 'जातिनामनिधत्तायु' है। 'निषेक' कहते हैं-कर्मपुद्गलों के अनुभव करने के लिए रचनाविशेष को। वह रचना इस प्रकार की होती है-अपने अबाधाकाल को छोड़कर (क्योंकि अबाधाकाल में कर्मपुद्गलों का अनुभव नहीं होता, इसलिए उसमें कर्मदलिकों की रचना नहीं होती / ) प्रथम-जघन्य अन्तर्मुहूर्तरूप स्थिति में बहुतर द्रव्य होता है। एक आकर्ष में ग्रहण किये हुए कर्मदलिकों में बहुत-से जघन्य स्थिति वाले ही होते हैं। शेष एक समय प्रादि से अधिक अन्तमुहर्तादि स्थिति में विशेष हीन (कम) द्रव्य होता है, एवं यावत् उत्कृष्ट स्थिति में उत्कृष्टत: (विशेषहीन अर्थात्-सर्वहीन सबसे कम) दलिक होते हैं। (2) गतिनामनिधत्तायुगतियां चार हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति / गतिरूप नामकर्म 'गतिनाम' है। उनके साथ निधत्त (निषिक्त) आयु 'गतिनामनिधत्तायु' कहलाती है / (3) स्थितिनामनिधत्तायु-उस-उस भव में (आयुष्यबल से) स्थित रहना स्थिति है / स्थितिप्रधान नाम (नामकर्म) स्थितिनाम है / उसके साथ निधत्त आयु 'स्थितिनामनिधत्तायु' है। जो जिस भव में उदयप्राप्त रहता है, वह स्थितिनाम है; जो कि गति, जाति तथा पांच शरीरों से भिन्न है। (4) अवगाहनानामनिधत्तायु-जिसमें जीव अवगाहन करे, उसे अवगाहना कहते है। औदारिकादि शरीर, उनका निर्माण करने वाला औदारिकादि शरीरनामकर्म–अवगाहनानाम है / उसके साथ निधत्त आयु 'अवगाहनानामनिधत्तायु' कहलाती है। (5) प्रदेशनामनिधत्तायु-प्रदेश कहते हैं-कर्मपरमाणुओं को / वे प्रदेश संक्रम से भी भोगे जाने वाले ग्रहण किये जाते हैं / उन (प्रदेशों) की प्रधानता वाला नाम (नामकर्म) प्रदेशनाम कहलाता है / तात्पर्य यह है कि जो जिस भव में प्रदेश से विपाकोदय के विना ही भोगा (अनुभव किया जाता है, वह प्रदेशनाम कहलाता है / उक्त प्रदेशनाम के साथ निधत्त अायु को 'प्रदेशनामनिधत्तायु' कहते हैं। (6) अनुभावनामनिधत्तायु-अनुभाव कहते हैं-विपाक को / यहाँ प्रकर्ष अवस्था को प्राप्त विपाक ही ग्रहण किया जाता है / उस अनुभाव-विपाक की प्रधानता वाला नाम (नामकर्म) 'अनुभावनाम' कह हलाता है। तात्पर्य यह है कि जिस भव में जो तीव्र विपाक वाला नामकर्म भोगा जाता है, वह अनुभावनाम कहलाता है। जैसे-नरकाय में अशुभ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, उपघात, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति आदि नामकर्म हैं। अतः अनुभावनाम के साथ निधत्त आयु 'अनुभावनामनिधत्तायु' कहलाती है। प्रस्तुत में आयुकर्म की प्रधानता प्रकट करने के लिए जाति, गति, स्थिति, अवगाहना नामकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org