________________ अट्ठमं सण्णापयं अष्टम संज्ञापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह पाठवाँ पद है, इसका नाम है--'संज्ञापद। * 'संज्ञा' शब्द पारिभाषिक शब्द है / संज्ञा की स्पष्ट शास्त्रीय परिभाषा है- वेदनीय तथा मोहनीय कर्म के उदय से एवं ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से विचित्र आहारादिप्राप्ति की अभिलाषारूप, रुचिरूप मनोवृत्ति / यों शब्दशास्त्र के अनुसार संज्ञा के दो अर्थ होते हैं--(१) संज्ञान (अभिलाषा, रुचि, वत्ति या प्रवत्ति) अथवा आभोग (झुकाव या रुझान, ग्रहण करने की तमन्ना) और (2) जिससे या जिसके द्वारा यह जीव है ऐसा सम्यक् रूप से जाना-पहिचाना जा सके। * वर्तमान में मनोविज्ञानशास्त्र, शिक्षामनोविज्ञान, बालमनोविज्ञान, काममनोविज्ञान (सेक्स साइकोलॉजी) आदि शास्त्रों में प्राणियों की मूल मनोवृत्तियों का विस्तृत वर्णन मिलता है; इन्हीं से मिलती-जुलती ये संज्ञाएँ हैं, जो प्राणी की आन्तरिक मनोवृत्ति और बाह्यप्रवृत्ति को सूचित करती हैं, जिससे प्राणी के जीवन का भलीभांति अध्ययन हो सकता है। इन्हीं संज्ञाओं द्वारा मनुष्य या किसी भी प्राणी की वृत्ति-प्रवृत्तियों का पता लगा कर उसके जीवन में सुधार या परिवर्तन लाया जा सकता है। * इस दृष्टि से संज्ञाओं का जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है, स्वयं की वृत्तियों को टटोलने और तदनुसार उन में संशोधन-परिवर्धन करके अात्मचिकित्सा करने में। * प्रस्तुत पद में सर्वप्रथम पाहारादि दस संज्ञाओं का नामोल्लेख करके तत्पश्चात् सामान्यरूप से * तारकों से लेकर वैमानिकों तक सर्वसंसारी जीवों में इन दसों संज्ञायों का न्यूनाधिक रूप में एक या दूसरी तरह से सद्भाव बतलाया है। एकेन्द्रिय जीवों में ये संज्ञाएं अव्यक्तरूप से रहती हैं और उत्तरोत्तर इन्द्रियों के विकास के साथ ये स्पष्टरूप से जीवों में पाई जाती हैं / तत्पश्चात् इन दस संज्ञाओं में से आहारादि मुख्य चार संज्ञाओं का चार गति वाले जीवों की अपेक्षा से विचार किया गया है कि किस गति के जीव में कौन-सी संज्ञा अधिकांश रूप में पाई जाती है ? यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है कि नैरयिकों में प्राय: भयसंज्ञा का, तिर्यंचों में आहारसंज्ञा का, मनुष्यों में मैथुनसंज्ञा का और देवों में परिग्रहसंज्ञा का प्राबल्य है। यों सामान्य रूप से चारों गतियों के जीवों में ये चारों संज्ञाएँ न्यूनाधिक रूप में पाई जाती हैं / तत्पश्चात् प्रत्येक गति के जीव में इन चारों संज्ञानों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org