Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अष्टम संज्ञापद] [511 733. एलेसि णं भते ! तिरिक्खजोणियाणं पाहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया परिग्गहसण्णोव उत्ता, मेहुणसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, भयसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, प्राहारसपणोवउत्ता संखेज्जगुणा / [733 प्र.] भगवन् ! इन आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक जीवों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? 7i33 उ.] गौतम ! सबसे कम परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक होते हैं, (उनसे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे होते हैं, उनसे) भयसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे होते हैं और उनसे भी पाहारसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे अधिक होते हैं। _ विवेचन-तिर्यञ्चों में पाई जाने वाली संज्ञाएँ तथा उनके अल्पबहुत्व का विचार---प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 732-733) में से प्रथम सूत्र में तिर्यञ्चों में बहुलता से तथा आन्तरिक अनुभवसातत्य से पाई जाने वाली संज्ञाओं का निरूपण है और द्वितीय सूत्र में उन-उन संज्ञानों से उपयुक्त तिर्यञ्चों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। संज्ञानों को दृष्टि से तिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व-परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च सबसे कम होते हैं, क्योंकि तिर्यञ्चों में एकेन्द्रियों की संज्ञा बहुत ही अव्यक्त होती है, शेष तिर्यञ्चों में भी परिग्रहसंज्ञा अल्पकालिक होती है, अतः पृच्छासमय में वे थोड़े ही पाए जाते हैं। परिग्रहसंज्ञा वालों की अपेक्षा मैथुनसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक इसलिए बताए हैं कि उनमें मैथुनसंज्ञा का उपयोग प्रचुरतर काल तक बना रहता है। उनकी अपेक्षा भयसंज्ञा में उपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि उन्हें सजातीयों (तिर्यञ्चों) और विजातीयों (तिर्यञ्चेतर प्राणियों) से भय बना रहता है और भय का उपयोग प्रचुरतम काल तक रहता है। उनकी अपेक्षा भी प्राहारसंज्ञा में उपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि सभी तिर्यञ्चों में प्राय: सतत (हर समय) आहारसंज्ञा का सद्भाव रहता है।' मनुष्यों में संज्ञाओं का विचार ---- 734. मणुस्सा णं भंते ! कि प्राहारसण्णोव उत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा। प्रोसण्णकारणं पडुच्च मेहुणसण्णोवउत्ता, संततिभावं पडुच्च श्राहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि / [734 प्र] भगवन् ! क्या मनुष्य आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, अथवा यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? [734 उ.] गौतम ! बहुलता से (प्रायः) बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) आन्तरिक सातत्यानुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) अाहारसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं, यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं / -- -- -...--- 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 223 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org