Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 510 / प्रज्ञापनासूत्र 'प्रोसन्नकारणं' तथा 'संतइभावं' की व्याख्या-'मोसन्न'—(उत्सन) का अर्थ यहाँ 'बाहुल्य अर्थात् प्रायः अधिकांशरूप' से है। 'कारण' शब्द का अर्थ है-बाह्यकारण। इसी प्रकार संतइभाव (संततिभाव) का अर्थ है-सातत्य (प्रवाह) रूप से आन्तरिक अनुभवरूप भाव / नैरयिकों में भयसंज्ञा को बहलता का कारण नैरयिकों में नरकपाल परमाधार्मिक असुरों / द्वारा विक्रिया से कृत शूल, शक्ति, भाला आदि भयोत्पादक शास्त्रों का अत्यधिक भय बना रहता है / इसी कारण यहां बताया गया है कि बाह्य कारण की अपेक्षा से नैरयिक बहुलता से (प्राय:) भयसंज्ञोपयुक्त होते हैं। सतत आन्तरिक अनुभवरूप कारण को अपेक्षा से चारों संज्ञाएँ-पान्तरिक अनुभवरूप मनोभाव की अपेक्षा से नैरयिकों में आहारादि चारों संज्ञाएँ पाई जाती हैं। नैरयिकों में चारों संज्ञानों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार-सबसे थोड़े मैथुनसंज्ञोपयुक्त नारक हैं, क्योंकि नै रयिकों के शरीर रातदिन निरन्तर दुःख की अग्नि में संतप्त रहते हैं, आँख की पलक झपने जितने समय तक उन्हें सुख नहीं मिलता। अहर्निश दुःख की आग में पचने वाले नारकों को मैथुनेच्छा नहीं होती! कदाचित् किन्हीं को मैथुनसंज्ञा होती भी है तो वह भी थोड़े-से समय तक रहती है / इसीलिए यहाँ नैरयिकों में सबसे थोड़े मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं / मैथुनसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा आहारसंज्ञोपयुक्त नारक संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि उन दुःखी नारकों में प्रचुरकाल तक आहार की संज्ञा बनी रहती है। आहारसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नारक संख्यातगुणे अधिक इसलिए होते हैं कि नैरयिकों को प्राहारसंज्ञा सिर्फ शरीरपोषण के लिए होती है, जबकि परिग्रहसंज्ञा शरीर के अतिरिक्त जीवन रक्षा के लिए शस्त्र प्रादि में होती है और वह चिरस्थायी होती है और परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा भयसंज्ञा वाले नारक संख्यातगुगे अधिक इसलिए बताए हैं कि नरक में नारकों में मृत्युपर्यन्त सतत भय की वृत्ति बनी रहती है। इस कारण भय संज्ञा वाले नारक पूर्वोक्त तीनों संज्ञानों वालों से अधिक हैं तथा पृच्छा समय में भी नारक अतिप्रभूततम भयसंज्ञोपयुक्त पाये जाते हैं।' तिर्यञ्चों में संज्ञाओं का विचार 732. तिरियखजोणिया णं भंते ! कि प्राहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा ! प्रोसणं कारणं पडुच्च प्राहारसण्णोव उत्ता, संतइभावं पडुच्च प्राहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि / [732 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक जीव क्या आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं यावत् (अथवा) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? [732 उ.] गौतम ! बहुलता से बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) अान्तरिक सातत्य अनुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं, भयसंज्ञोपयुक्त भी यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 223 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org