________________ नौवां योनिपद [525 [773-1 प्र.] भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? [773-1 उ.] गौतम ! योनि तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार--(१) कूर्मोन्नता, (2) शंखावर्ता और (3) वंशीपत्रा। [2] कुम्मुण्णया णं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं / कुम्मुण्णयाए णं जोणीए उत्तमपुरिसा गम्भे बक्कमति / तं जहा-अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा / [773-2] कर्मोन्नता योनि उत्तमपुरुषों की माताओं की होती है / कर्मोन्नता योनि में (ये) उत्तमपुरुष गर्भ में उत्पन्न होते हैं / जैसे—अर्हन्त (तीर्थंकर), चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव / [3] संखावत्ता णं जोणी इत्थिरयणस्स / संखावत्ताए णं जोणीए बहवे जोवा य पोग्गला य वक्कमति विउक्कमति चयंति उवचयंति, नो चेव णं निप्फज्जति / [773-3] शंखावर्ता योनि स्त्रीरत्न की होती है। शंखावर्ता योनि में बहुत-से जीव और पुद्गल आते हैं, गर्भरूप में उत्पन्न होते हैं, सामान्य और विशेषरूप से उनकी वृद्धि (चय-उपचय) होती है, किन्तु उनकी निष्पत्ति नहीं होती। [4] वंसोपत्ता गं जोणी पिहुजणस्स / वंसीपत्ताए णं जोणोए पिहुजणे गम्भे वक्कमति / // पणवणाए भगवईए णवमं जोणीपयं समत्तं / / 7i73-4] वंशीपत्रा योनि पृथक् (सामान्य) जनों की (मातागों की) होती है। वंशीपत्रा योनि में पृथक् (साधारण) जीव गर्भ में पाते हैं / विवेचन--मनुष्यों को त्रिविध योनिविशेषों को प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (773/1,2,3,4) में मनुष्यों को कूर्मोन्नता आदि तीन विशिष्ट योनियों, योनि वाली स्त्रियों एवं उनमें जन्म लेने वाले मनुष्यों का निरूपण किया गया है। कर्मोन्नता प्रादि योनियों का अर्थ-कर्मोन्नता योनि = जो योनि कछुए की पीठ की तरह उन्नत-ऊँची उठी हुई या उभरी हुई हो। शंखावर्ता योनि - जिसके आवर्त शंख के उतार-चढ़ाव के समान हों, ऐसी योनि / वंशीपत्रा योनि- जो योनि दो संयुक्त (जुड़े हुए) वंशीपत्रों के समान प्राकार वाली हो। शंखावर्ता योनि का स्वरूप---शंखावर्ता स्त्रीरत्न की अर्थात्-चक्रवर्ती की पटरानी की होती है। इस योनि में बहुत-से जीव अवक्रमण करते (आते) हैं, व्युत्क्रमण करते (गर्भ-रूप में उत्पन्न होते) हैं, चित होते (सामान्यरूप से बढ़ते) हैं और उपचित होते (विशेषरूप से बढ़ते) हैं। परन्तु वे निष्पन्न नहीं होते, गर्भ में ही नष्ट हो जाते हैं / इस सम्बन्ध में वृद्ध प्राचार्यों का मत है कि शखावा योनि में आए हुए जीव अतिप्रबल कामाग्नि के परिताप से वहीं विध्वस्त हो जाते हैं। 1 प्रज्ञापनासूत्र : नौवाँ योनिपद समाप्त / / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 228 (ख) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 3, पृ. 83-84 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org