________________ दसर्वा चरमपद ] प्रश्नों का भी भगवान् निषेधरूप में उत्तर देते हैं-रत्नप्रभापृथ्वी न अनेक चरम है और न ही अनेक अचरमरूप है / क्योंकि पूर्वकथनानुसार जब रत्नप्रभापृथ्वी एकत्वविशिष्ट चरम और अचरम नहीं है तो बहुत्वविशिष्ट चरम-अचरम भी कैसे हो सकती है ? अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी न तो बहुत चरम द्रव्यरूप है और न ही बहुत अचरमद्रव्यरूप है। इसी प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी को न तो चरमान्तप्रदेशों के रूप में कह सकते हैं और न ही अचरमान्तप्रदेशों के रूप में कह सकते हैं। क्योंकि जब रत्नप्रभापृथ्वी में चरमत्व और अचरमत्व संभव ही नहीं है, तब उसे चरमप्रदेश या अचरमप्रदेश भी नहीं कहा जा सकता।' प्रश्न होता है कि रत्नप्रभापथ्वी चरम, अचरम आदि पूर्वोक्त छह विकल्पों बाली नहीं है तो क्या है ? उसे किस रूप में कहना और समझना चाहिए ? भगवान ने इसके उत्तर में कहा-.-'रत्नप्रभापथ्वी अचरम और अनेक चरमरूप (चरमाणि) है तथा चरमान्तप्रदेशरूप और अचरमान्त प्रदेशरूप है / इसका आशय यह है कि जब एक और अखण्डरूप में विवक्षित रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में प्रश्न किया जाए तो वह पूर्वोक्त छह भंगों में से किसी भी भंग में नहीं आ सकती, किन्तु जब रत्नप्रभापृथ्वी को असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ और अनेक अवयवों में विभक्त मान कर प्रश्न किया जाए तो उसे अचरम और अनेक चरम रूप (चरमाणि) कहा जा सकता है। क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी ! इस प्रकार के आकार में स्थित है। ऐसी स्थिति में इसके प्रान्तभागों में विद्यमान प्रत्येक खण्ड तथाविध-विशिष्ट एकत्वपरिणाम परिणत हैं, उन खण्डों को अनेक चरम रूप (चरमाणि) कहा जा सकता है और जो उन प्रान्तभागों के मध्य में बड़ा खण्ड हैं, उसे तथाविध-एकत्वपरिणाम होने से एक मान लिया जाए तो वह 'अचरम' है। इस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी प्रान्तवर्ती अनेक खण्डों और मध्यवर्ती एक महाखर सम्मिलित समुदायरूप है, ऐसा न मानने पर रत्नप्रभापृथ्वी के अभाव का प्रसंग आ जाएगा। इस प्रकार एक ही पृथ्वी को अवयव-अवयवीरूप में मान लेने पर जैसे उसे अचरम-अनेक चरम रूप (चरमणि) अर्थात्-अखण्ड और एक निर्वचनविषय कहा जा सकता है, उसी प्रकार प्रदेशों की विवक्षा करने पर उसे 'चरमान्त अनेकप्रदेशरूपा' तथा 'अचरमान्त अनेकप्रदेशरूपा' भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसके बाह्यखण्डों में रहे हुए प्रदेश चरमान्तप्रदेश कहलाते हैं और मध्यवर्ती एक महाखण्ड में रहे हुए प्रदेश 'अचरमान्तप्रदेश' कहलाते हैं। इस प्रकार मुख्यतया एकान्तदुर्नय का निराकरण करने वाले भगवान् के उत्तर से रत्नप्रभा आदि वस्तुएं अवयव-अवयवीरूप हैं, अवयव और अवयवी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है, यह अनेकान्त सिद्धान्त सूचित हो गया / ___इस प्रकार जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में प्रश्न और निर्वचन का (युक्तिपूर्वक विश्लेषण) करके प्ररूपणा की गई, वैसी ही प्ररूपणा शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर तमस्तम:पृथ्वी तक तथा सौधर्म से लेकर अनुत्तर विमान तक एवं ईषतप्रारभारापृथ्वी और लोक के विषय भी प्रश्न प्रश्न एवं उत्तर का युक्तिपूर्वक विश्लेषण करके करनी चाहिए / अलोक के विषय में भी इसी प्रकार प्रश्नोत्तररूप सूत्र बना कर प्ररूपणा करना चाहिए / अलोक के लिए लोक के निष्कुटों में प्रविष्ट जो खण्ड हैं, वे चरम हैं, शेष अन्य सब अचरम हैं तथा चरमखण्डगतप्रदेश चरमान्तप्रदेश हैं एवं अचरमखण्डगत प्रदेश अचरमान्त प्रदेश हैं। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 229 2. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक 229 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org