________________ 512 [प्रज्ञापनासूत्र 735. एतेसि गं भंते ! मणुस्साणं पाहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा मणूसा भयसण्णोवउत्ता, पाहारसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, परिग्गहसणोवउत्ता संखेज्जगुणा, मेहुणसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा। [735 प्र.] भगवन् ! इन अाहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्यों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक होते हैं ? [735 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य भयसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (उनसे) आहारसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे होते हैं, (उनसे) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं (और उनसे भी) संख्यातगुणे (अधिक मनुष्य) मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं / विवेचन-मनुष्यों में पाई जाने वाली संज्ञाओं और उनके अल्पबहुत्व का विचार–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 734-735) में क्रमशः मनुष्य में बहुलता से तथा सातत्यानुभवभाव से पाई जाने वाली संज्ञाओं एवं उन संज्ञाओं वाले मनुष्यों का अल्पबहुत्व प्रस्तुत किया गया है / चारों संज्ञानों की अपेक्षा से मनुष्यों का प्रल्पबहत्व-भयसंज्ञोपयुक्त मनुष्य सबसे कम इसलिए बताए हैं कि कुछ ही मनुष्यों में अल्प समय तक ही भयसंज्ञा रहती है / उनकी अपेक्षा आहारसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे हैं, क्योंकि मनुष्यों में ग्राहारसंज्ञा अधिक काल तक रहती है। प्राहारसंज्ञा वाले मनुष्यों की अपेक्षा परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि आहार की अपेक्षा मनुष्यों को परिग्रह को चिन्ता एवं लालसा अधिक होती है। परिग्रहसंज्ञा वाले मनुष्यों की अपेक्षा भी मैथुनसंज्ञा में उपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक पाए जाते हैं, क्योंकि मनुष्यों को प्रायः मैथुनसंज्ञा अतिप्रभूत काल तक बनी रहती है।' देवों में संज्ञाओं का विचार 736. देवा णं भंते ! कि आहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा ! उस्सणं कारणं पडुच्च परिग्गहसण्णोवउत्ता, संततिभावं पडुच्च प्राहारसग्णोवउत्ता वि जाव परिम्गहसण्णोवउत्ता वि / [736 प्र.] भगवन् ! क्या देव आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (अथवा) यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? [736 उ.] गौतम ! बाहुल्य से (प्रायः) बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) अान्तरिक सातत्य अनुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) पाहारसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं, यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं / 737. एतेसि णं भंते ! देवाणं आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 223 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org