Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सप्तम उच्छ्वासपद] [503 [724 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध विमान के देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [724 उ ] गौतम ! (वे) अजघन्य-अनुत्कृष्ट (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित) तेतीस पक्षों में (अन्त:स्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं। विवेचन नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के श्वासोच्छवास की प्ररूपणा-प्रस्तुत पद के कुल बत्तीस सूत्रों (सू. 693 से 724 तक) में क्रमश: नैरयिक से लेकर वैमानिक देवों तक चौवीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों की अन्त:स्फरित एवं बाह्यस्फरित उच्छवास-नि:श्वासक्रिया जघन्य एवं उत्कृष्ट कितने काल के अन्तर से होती है ? इसकी प्ररूपणा की गई है। प्रश्न का तात्पर्य—जो प्राणी नारक आदि पर्यायों में उत्पन्न हुए हैं और श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त हैं, वे कितने काल के बाद उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं ? अर्थात् एक श्वासोच्छ्वास लेने के पश्चात् दूसरा श्वासोच्छ्वास लेने तक में उनके उच्छ्वास-निःश्वास का विरहकाल कितना होता है ?, यही इस पद के प्रत्येक प्रश्न का तात्पर्य है। प्राणमंति, पाणमंति, ऊससंति, नीससंति पदों की व्याख्या-'अन् प्राणने' धातु से 'पाङ' उपसर्ग लगने पर 'आनन्ति' और 'प्र' उपसर्ग लगने पर 'प्राणन्ति' रूप बनता है तथा सामान्यतया 'मानन्ति' और 'उच्छ्वसन्ति' का तथा प्राणन्ति' और 'नि:श्वसन्ति' का एक ही अर्थ है,फिर समानार्थक दो-दो क्रियापदों का प्रयोग यहाँ क्यों किया गया ? ऐसी शंका उपस्थित होती है। इसके दो समाधान यहाँ प्रस्तुत किये गए हैं- एक तो यह है कि भगवान् के पट्टधर शिष्य श्री गौतमस्वामी ने अपने प्रश्न को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने के लिए समानार्थक दो-दो शब्दों का प्रयोग किया है-जैसे कि 'नैरयिक कितने काल से श्वास लेते हैं अथवा यों कहें कि ऊँचा श्वास और नीचा श्वास लेते हैं ?' भगवान् के ऐसे प्रश्न के उत्तर में अपने शिष्य के पुनरुक्त वचन के प्रति आदर प्रदर्शित करने हेतु उन्हीं समानार्थक दो-दो शब्दों का प्रयोग किया है, क्योंकि गुरुओं के द्वारा शिष्यों के वचन को प्रादर दिये जाने से शिष्यों को सन्तोष होता है, वे पुनः-पुनः अपने प्रश्नों का निर्णयात्मक उत्तर सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं तथा उन शिष्यों के वचन भी जगत् में आदरणीय समझे जाते हैं। दूसरा समाधान यह है कि 'प्रानन्ति' और 'प्राणन्ति' का अर्थ अन्तर में स्फुरित होने वाली उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया और 'उच्छ्वसन्ति' एवं 'निःश्वसन्ति' का अर्थ बाहर में स्फुरित होने वाली उच्छ्वास-निःश्वासक्रिया समझना चाहिए। अतः यहाँ पुनरुक्ति नहीं किन्तु अर्थभेद के कारण पृथक-पृथक् क्रियापदों का प्रयोग किया गया है। ___नारकों को सतत उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया का रहस्य-भगवान् ने नैरयिकों के उच्छ्वास सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में फरमाया कि नैरयिक सदैव निरन्तर अविच्छिन्न रूप से उच्छ्वास-निश्वास लेते रहते हैं, इस कारण उनका श्वासोच्छ्वास लगातार चालू रहता है, एक बार श्वासोच्छ्वास लेने के बाद दूसरी बार के श्वासोच्छ्वास लेने के बीच में व्यवधान (विरह) नहीं रहता। विमात्रा से उच्छवास-निःश्वास लेने का तात्पर्य—पृथ्वीकायिक आदि समस्त एकेन्द्रिय जीव तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्य, ये विमात्रा से उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। इसका अर्थ है-इनके उच्छ्वास के विरह का कोई काल नियत नहीं है; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org