________________ (प्रजापनासूत्र आदि को आयु के विशेषण के रूप में कहा है / नारक आदि की आयु का उदय होने पर ही जाति आदि नामकर्मों का उदय होता है / अन्यथा नहीं, प्रतएव आयु की ही यहाँ प्रधानता है।' आकर्ष का स्वरूप-आकर्ष कहते हैं—विशेष प्रकार के प्रयत्न से जीव द्वारा होने वाले कर्मपुद्गलों के उपादान--ग्रहण को / प्रस्तुत सूत्रों (सू. 687 से 690 तक) में इस विषय की चर्चा की गई है कि जीवसामान्य तथा नारक से लेकर वैमानिक तक कितने आकर्षों यानी प्रयत्नविशेषों से जातिनामनिधत्तायु आदि षड्विध आयुष्यकर्म-पुद्गलों का ग्रहण, बन्ध करने हेतु, करते हैं ? उदाहरणार्थ-जैसे-कई गायें एक ही घूट में पर्याप्त जल पी लेती हैं, कई भय के कारण रुक-रुक कर दो, तीन या चार अथवा सात-आठ घंटों में जल पीती हैं। उसी प्रकार कई जीव उन-उन जातिनाम आदि से निधत्त आयुकर्म के (बन्धहेतु) पुद्गलों का तीन अध्यवसायवश एक ही मन्द आकर्ष में ग्रहण कर लेते हैं, दूसरे दो या तीन मन्दतर आकर्षों में या चार या पांच मन्दतम अाकर्षों में या फिर छह, सात या आठ अत्यन्त मन्दतम आकर्षों में ग्रहण करते हैं / यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि प्राय के साथ बन्धने वाले जाति आदि नामों (नामकों) में ही आकर्ष का नियम है ; शेष काल में नहीं। कई प्रकृतियाँ 'ध्र वबन्धिनी' होती हैं और कई 'परावर्तमान' होती हैं / उनका बहुत काल तक बन्ध सम्भव होने से उनमें आकर्षों का नियम नहीं है। आकर्ष करने वाले जीवों का तारतम्य-बन्ध के हेतु आयुष्यकर्मपुद्गलों का ग्रहण अधिक-सेअधिक पाठ आकर्षों में करने वाले जीव सबसे कम हैं, उनसे क्रमश: कम आकर्ष करने वाले जीव उत्तरोत्तर संख्यातगुणे अधिक हैं, सबसे अधिक जीव एक आकर्ष करने वाले हैं। // प्रज्ञापनासूत्रः छठा व्युत्क्रान्तिपद समाप्त / 2. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 218 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 217-218 3. पण्णवणासुत्तं भा. 2, छठे पद की प्रस्तावना, पृ. 74 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org