________________ 484] [ प्रज्ञापनासूत्र [6] एवं पाउ-वणस्सतोसु वि भाणितव्वं / [668-6] इसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में (उत्पत्ति के विषय में) भी कहना चाहिए। [7] पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूसेसु य जहा नेरइयाणं उच्वट्टणा सम्मुच्छिमवज्जा तहा भाणितवा। [668-7] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में (असुरकुमारों की उत्पत्ति के विषय में) उसी प्रकार कहना चाहिए, जिस प्रकार सम्मूच्छिम को छोड़कर नैरयिकों की उद्वर्तना कही है। [8] एवं जाव थणियकुमारा। [668-8] इसी प्रकार (असुरकुमारों की तरह) स्तनितकुमारों तक की उद्वर्तना समझ लेनी चाहिए। 666. [1] पुढविकाइया णं भंते ! अणंतरं उध्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहि उववज्जति ? कि नेरइएसु जाव देवेसु ? गोयमा ! नो नेरइएसु उवबजंति, तिरिक्खजोणिय-मणूसेसु उववज्जंति, नो देवेसु / [669-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सीधे निकल कर (अनन्तर उद्वर्तन करके) कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नारकों में यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं ? [669-1 उ.] गौतम ! (वे) नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। [2] एवं जहा एतेसि चेव उववाओ तहा उच्वट्टणा वि' भाणितव्वा / [669-2] इसी प्रकार जैसा इनका उपपात कहा है, वैसी ही इनकी उद्वर्तना भी (देवों को छोड़कर) कहनी चाहिए। 670. एवं प्राउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरेंदिया वि / _ [670] इसी प्रकार अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों (की भी उद्वर्त्तना कहनी चाहिए।) 671. एवं तेऊ वाऊ वि / णवरं मणुस्सवज्जेसु उववति / [671] इसी प्रकार तेजस्कायिक और वायुकायिक की भी उद्वर्तना कहनी चाहिए / विशेष यह है कि (वे) मनुष्यों को छोड़ कर उत्पन्न होते हैं। 672. [1] पर्चेदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! प्रणतरं उट्टित्ता कहिं गच्छंति कहि उववज्जंति ? कि नेरइएसु जाव देवेसु ? 1. पाठान्तर-'देववज्जा' यह अधिक पाठ किसी-किसी प्रति में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org