________________ 458] [ प्रजापनासूत्र 635, गम्भवतियमणूस-प्राणय-पाणय-प्रारण-अच्चुय-गेवेज्जग-अणुत्तरोववाइया य एते जहण्णेणं एषको वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / ___ [635] गर्भज मनुष्य, पानत, प्राणत, पारण, अच्युत, (नौ) वेयक, (पांच) अनुत्तरौपपातिक देव ; ये सब जघन्यतः एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्टत: संख्यात उत्पन्न होते हैं / 636. सिद्धा णं भंते ! एगसमएणं केवतिया सिझंति ? गोयमा ! जहणेणं एकको वा दो वा तिणि वा, उक्सोसेणं अट्ठसतं / [636 प्र.] भगवन् ! सिद्ध भगवन् एक समय में कितने सिद्ध होते हैं ? [636 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः एक, दो, अथवा तीन और उत्कृष्टत: एक सौ आठ सिद्ध होते हैं। 637. नेरइया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया उव्वति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उज्वट्ट ति। [637 प्र.] भगवन् ! नैरयिक एक समय में कितने उद्वतित होते (मर कर निकलते) हैं ? [637 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात उत्तित होते (मरते) हैं। 638. एवं जहा उवधानो भणितो तहा उध्वट्टणा वि सिद्धवज्जा भाणितम्या जाव अणुत्तरो. ववाइया / गवरं जोइसिय-वेमाणियाणं चयणेणं अभिलादो कातव्यो / दारं 4 // 6638] इसी प्रकार जैसे उपपात के विषय में कहा, उसी प्रकार सिद्धों को छोड़ कर अनुत्तरोपपातिक देवों तक की उद्वर्तना के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए (उद्वर्तना के बदले) 'च्यवन' शब्द का प्रयोग (अभिलाप) करना चाहिए। -चतुर्थ एकसमयद्वार / / 4 / / विवेचन-चतुर्थ एकसमय-द्वार: चौबीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों की एक समय में उत्पत्ति तथा उद्वर्तना की संख्या को प्ररूपणा--प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 626 से 638 तक) में एक समय में समस्त संसारी जीवों की उत्पत्ति एवं उद्वर्त्तना तथा सिद्धों की सिद्धिप्राप्ति की संख्या के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है। वनस्पतिकायिकों के स्वस्थान-उपपात एवं परस्थान-उपपात की व्याख्या- यहाँ स्वस्थान का अर्थ 'वनस्पतिभव' समझना चाहिए। जो वनस्पतिकायिक जीव मर कर पुनः वनस्पतिकाय में ही उत्पन्न होते हैं, उनका उत्पाद स्वस्थान में उत्पाद कहलाता है और जब पृथ्वी काय आदि किसी अन्य काय का जीव वनस्पतिकाय में उत्पन्न होता है, तब उसका उत्पाद परस्थान-उत्पाद कहलाता है / स्वस्थान में उत्पत्ति की अपेक्षा प्रत्येक समय में निरन्तर अनन्त वनस्पतिकायिक जीव उत्पन्न होते रहते हैं; क्योंकि प्रत्येक निगोद में असंख्यातभाग का निरन्तर उत्पाद और उद्वर्तन होता रहता है, और वे वनस्पतिकायिक अनन्त होते हैं / परस्थान-उत्पाद की अपेक्षा से प्रतिसमय निरन्तर असंख्यात जीवों का उपपात होता रहता है, क्योंकि पृथ्वीकाय आदि के जीव असंख्यात हैं / तात्पर्य यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org