Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद] [455 618. एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जंति / [618] इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों तक सान्तर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं (ऐसा कहना चाहिए)। 616. बेइंदिया णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतर पि उववज्जति / [616 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते है ? [616 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / 620, एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया / [620] इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों तक कहना चाहिए। 621. मणस्सा णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतर पि उववति / [621 प्र.] भगवन् ! मनुष्य सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [621 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / 622. एवं वाणमंतरा जोइसिया सोहम्म-ईसाण-सणंकुमार-माहिद-बंभलोय-लंतग-महासुक्कसहस्सार-आणय-पाणय-पारण-उच्चुय-हेठिमगेवेज्जग-मज्झिमगेवेज्जग-उवरिमगेवेज्जग-विजय-वेजयंत. जयंत-अपराजित-सम्वसिद्धदेवा य संतरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उववति / [622] इसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, प्रारण, अच्युत, अधस्तन ग्रेवेयक, मध्यम प्रैवेयक, उपरितन ग्रेवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। 623. सिद्धाणं भंते ! कि संतरं सिझंति ? निरंतर सिझंति ? गोयमा ! संतरं पिसिझंति, निरंतरं पि सिझंति / [623 प्र.] भगवन् ! सिद्ध क्या सान्तर सिद्ध होते हैं अथवा निरन्तर सिद्ध होते हैं ? [623 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी सिद्ध होते हैं, निरन्तर भी सिद्ध होते हैं। 624. नेरइया णं भंते ! कि संतरं उज्वट्टति ? निरंतरं उबट्टति ? गोयमा ! संतरं पि उव्वट्टति, निरंतरं पि उन्चट्ट ति / [624 प्र.] भगवन् ! नैरयिक सान्तर उद्वर्तन करते हैं अथवा निरन्तर उद्वर्तन करते हैं ? [624 उ.] गौतम ! वे सान्तर भी उद्वर्तन करते हैं और निरन्तर भी उद्वर्तन करते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org