________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद } [453 608. एवं सिद्धवज्जा उज्वट्टणा वि भाणितच्या जाव प्रणुत्तरोक्वाइय त्ति / नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणं ति महिलावो कायध्वो / दारं 2 // [608] जिस प्रकार उपपात-विरह का कथन किया है, उसी प्रकार सिद्धों को छोड़ कर अनुत्तरोपपातिक देवों तक (पूर्ववत्) उद्वर्तनाविरह भी कह लेना चाहिए। विशेषता यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के निरूपण में (उद्वर्तना के स्थान पर) 'च्यवन' शब्द का अभिलाप (प्रयोग) करना चाहिए। विवेचन-द्वितीय चतुर्विशतिद्वार : नैरयिकों से लेकर अनुत्तरौपपातिक जीवों तक के उपपात और उद्वर्तना के विरहकाल को प्ररूपणा-प्रस्तुत 40 सूत्रों (सू. 566 से 608 तक) में विभिन्न विशेषण युक्त विशेष नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के उपपातरहितकाल एवं उद्वर्तनाविरहकाल की प्ररूपणा की गई है। पृथ्वीकायिकादि प्रतिसमय उपपादविरहरहित-पृथ्वीकायिक आदि जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं। कोई एक भी समय ऐसा नहीं, जब पृथ्वीकायिकों का उपपात न होता हो।' इसलिए उन्हें उपपातविरह से रहित कहा गया है। __ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में उद्वर्तना नहीं—ज्योतिष्क और वैमानिक इन दोनों जातियों के देवों के लिए 'च्यवन' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। च्यवन का अर्थ है नीचे आना / ज्योतिष्क और वैमानिक इस पृथ्वी से ऊपर हैं, अतएव देव मर कर ऊपर से नीचे पाते हैं, नीचे से ऊपर नहीं जाते। तीसरा सान्तरद्वार : नैरयिकों से सिद्धों तक की उत्पत्ति और उद्वर्तना का सान्तरनिरन्तर-निरूपण 606. नेरइया णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उबवज्जति ? गोयमा! संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पि उववज्जति / [606 प्र.] भगवन् ! नै रयिक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [606 उ.] गौतम (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। 610. तिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि संतरं उक्वज्जति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा! संतरं पिउववज्जंति. निरंतरं पिउववज्जंति / [610 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 207, (ख) देखिये, संग्रहणीगाथा, मलय. वृत्ति, पत्रांक 207 (ग) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका. भा. 2, पृ. 958 2. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 207 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 970 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org