________________ छठा व्युत्कान्तिपद ] [445 विवेचन---प्रथम द्वादश (बारस = बारह) द्वार : चार गतियों के उपपात और उद्वर्त्तना का विरहकाल-निरूपण-प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 560 से 568 तक) में नरकादि चार गतियों और पांचवीं सिद्धगति के जघन्य-उत्कृष्ट उपपातविरहकाल का तथा उन के उद्वर्तनाविरहकाल का निरूपण किया गया है। निरयगति आदि चारों गतियों के लिए एकवचनप्रयोग क्यों ? निरयगति अर्थात्नरकगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले जीव का प्रौदयिक भाव / इसी प्रकार तिर्यञ्चादिगति के विषय में समझना चाहिए / वह प्रौदयिकभाव सामान्य की अपेक्षा से सभी गतियों में अपनाअपना एक है / नरकगति का औदयिकभाव सातों पृथ्वियों में व्यापक है, इसलिए नरकगति आदि चारों गतियों में प्रत्येक में एकवचन का प्रयोग किया गया है / उपपात और उसका विरहकाल-किसी अन्य गति से मर कर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव या सिद्ध के रूप में उत्पन्न होना उपपात कहलाता है। नरकगति में उपपात के विरहकाल का अर्थ है-जितने समय तक किसी भी नये नारक का जन्म नहीं होता; दूसरे शब्दों में-नरकगति नये नारक के जन्म से रहित जितने काल तक होती है, वह नरकगति में उपपात-विरहकाल है। इसी प्रकार अन्य गतियों में उपपातविरहकाल का अर्थ समझ लेना चाहिए। नरकादि गतियाँ कम से कम एक समय और अधिक से अधिक 12 मुहूर्त तक उपपात से रहित होती हैं / बारह मुहत्त के बाद कोई न कोई जोव नरकादि गतियों में उत्पन्न होता ही है। सिद्धगति का उपपातविरहकाल उत्कृष्टतः का बताया है, उसका कारण यह है कि एक जीव के सिद्ध होने के पश्चात् संभव है कोई जीव अधिक से अधिक छह मास तक सिद्ध न हो। छह मास के अनन्तर अवश्य ही कोई न कोई सिद्ध (मुक्त) होता है। चौबीस मूहर्त-प्रमाण उपपातविरह क्यों नहीं ?--आगे कहा जाएगा कि उपपातविरहकाल चौबीस मुहूर्त का है, किन्तु यहाँ जो बारह मुहूर्त का उपपातविरहकाल बताया है, वह सामान्यरूप से नरकगति का उपपातविरहकाल है, किन्तु जब रत्नप्रभा आदि एक-एक नरकपृथ्वी के उपपातविरहकाल की विवक्षा की जाती है, तब वह चौबीस मुहूर्त का ही होता है। इसी प्रकार अन्य गतियों के विषय में समझ लेना चाहिए।' उद्वर्तना और उसका विरहकाल-नरकादि किसी गति से निकलना उद्वर्तना है, प्रश्न का आशय यह है कि ऐसा कितना समय है, जबकि कोई भी जीव नरकादि गति से न निकले? यह उद्वर्तनाविरहित काल कहलाता है / उद्वर्तना-विरहकाल चारों गतियों का उष्कृष्टत: 12 मुहर्त का है / सिद्धगति में उतना नहीं होती, क्योंकि सिद्धगति में गया हुआ जीव फिर कभी वहाँ से निकलता नहीं है / इसलिए सिद्धगति में उद्वर्तना नहीं होती। अतएव वहाँ उद्वर्तना का विरहकाल भी नहीं है। वहाँ तो सदैव उद्वर्तनाविरह है, क्योंकि सिद्धपर्याय सादि होने पर भी अनन्त (अन्तरहित) है, सिद्ध जीव सदाकाल सिद्ध ही रहते हैं / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 205. 2. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति. पत्रांक 205, (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 935 से 937 (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 837 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org