________________ पांचवा विशेषपद (पर्यायपव)] [427 - [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छठाणवडिते। [539-3] अजधन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले द्विप्रदेशी स्कन्धों का पर्याय विषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित कहना चाहिए। 540. एवं जाव दसपएसिते / गवरं पएसपरिवुड्डी, प्रोगाहणा तहेव / [540] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए / अवगाहना से उसी प्रकार है। 541. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! संखेज्जपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता। से केणछैणं? गोयमा ! जहण्णगुणकालए संखेज्जपएसिए जहण्णगुणकालगस्स संखेज्जपएसियस्स दवठ्याते तुल्ले, पएसठ्ठयाते दुट्ठाणवडिते, ओगाहणट्ठयाए दुट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसे सेहिं बण्णादि-उवरिल्लच उफासेहि य छट्ठाणवाहिते। [541-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी पुद्गलों के कितने पर्याय कहे हैं ? [541-1 उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं / ) [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि (जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ?) [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है तथा स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और अवशिष्ट वर्ण आदि तथा ऊपर के चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [541-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते / [541-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए।) विशेषता यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 542. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! असंखेज्जपएसियाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णगुणकालए प्रसंखेज्जपएसिए जहण्णगुणकालगस्स असंखेज्जपएसियस्स दवट्ठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org