________________ 434] [प्रज्ञापनासूत्र है, उसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पों [वाले उन-उन स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए।) इसी प्रकार परमाणुद्गल में इन सभी का प्रतिपक्ष नहीं कहा जाता, यह कहना चाहिए। विवेचना-जयन्यादियुक्त वर्णादि-पुद्गलों की पर्याय-प्ररूपणा–प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू. 538 से 553 तक) में कृष्णादि वर्ण, गन्ध, रस, और स्पों के परमाणुपुद्गलों, द्विप्रदेशी से संख्यातअसंख्यात-अनन्त प्रदेशी स्कन्धों तक के पर्यायों की प्ररूपणा की गई है। कृष्णादि वर्गों तथा गन्ध-रस-स्पर्शों के पर्याय-कृष्ण, नील आदि पाँच वर्णों, दो प्रकार के गन्धों, पांच प्रकार के रसों और आठ प्रकार के स्पों के प्रत्येक के तरतमभाव की अपेक्षा से अनन्तअनन्त विकल्प हात है / तदनुसार कृष्ण आदि अनन्त-अनन्त प्रकार के हैं / जघन्यगुण उत्कृष्टगुण एवं मध्यमगुण कृष्णादि वर्ण की व्याख्या-कृष्णवर्ण की सबसे कम मात्रा जिसमें पाई जाती है, वह पुद्गल जघन्यगुण काला कहलाता है। यहाँ गुणशब्द अंश या मात्रा के अर्थ में प्रयुक्त है / जघन्यगुण का अर्थ है---सबसे कम अंश / दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जिस पुद्गल में केवल एक डिग्री का कालापन हो-जिससे कम कालापन का सम्भव ही न हो, वह जघन्यगुण काला समझना चाहिए। जिसमें कालेपन के सबसे अधिक अंश पाए जाएँ, वह उत्कृष्टगुण काला है / एक अंश कालेपन से अधिक और सबसे अधिक (अन्तिम) कालेपन से एक अंश कम तक का काला मध्यमगुणकाला कहलाता है / कृष्णवर्ण की तरह ही जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यमगुणयुक्त नीलादि वर्गों, तथा गन्धों, रसों एवं स्पर्शों के विषय में समझना चाहिए।' अवगाहना की अपेक्षा से द्विप्रदेशी स्कन्ध को होनाधिकता--एक द्विप्रदेशी स्कन्ध दूसरे द्विप्रदेशी स्कन्ध से अवगाहना की अपेक्षा से यदि हीन हो तो एक-एक प्रदेश कम अवगाहना वाला हो सकता है और यदि अधिक हो तो एक प्रदेश अधिक अवगाहना वाला हो सकता है / तात्पर्य यह है कि द्विप्रदेशी स्कन्ध की अवगाहना में एक प्रदेश से अधिक न्यूनाधिक अवगाहना का सम्भव नहीं है। द्विप्रदेशी स्कन्ध से दशप्रदेशी स्कन्ध तक उत्तरोत्तर प्रदेशति--इनकी पर्याय-वक्तव्यता द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान है, किन्तु उनमें उत्तरोत्तर प्रदेशों की वृद्धि करनी चाहिए / अर्थात्-- दशप्रदेशी स्कन्ध तक कमशः नौ प्रदेशों की वृद्वि कहनी चाहिए। __ जघन्यगुण कृष्ण संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेश एवं अवगाहना की दृष्टि से द्विस्थानपतितप्रदेशों की अपेक्षा से वह द्विस्थानपतित होता है, अर्थात्-वह संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन या संख्यातभाग-अधिक प्रथया संख्यातगुण-अधिक होता है। इसी प्रकार अवगाहना की दृष्टि से द्विस्थानपतित है / परस्पर विरोधी गन्ध, रस और स्पर्श का परमाणुषुद्गल में प्रभाव-जिस परमाणपुद्गल में सुरभिगन्ध होती है, उनमें दुरभिगन्ध नहीं होती, और जिसमें दुरभिगन्ध होती है, उसमें सुरभिगन्ध नहीं होती, क्योंकि परमाणु एक गन्ध वाला ही होता है / इसलिए जिस गन्ध का कथन किया जाए, वहाँ दूसरी गन्ध का अभाव कहना चाहिए / इसी प्रकार जहाँ एक रस का कथन हो, वहाँ दूसरे रसों का अभाव समझना चाहिए / अर्थात्-जहाँ तिक्त रस हो, वहाँ शेष कटु आदि रस नहीं होते ; क्योंकि 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 885-886 2. प्रज्ञापनासूत्र; प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 887 से 890 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org