________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [433 [2] एवं उपकोसगुणसीते वि। [551-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों की पर्याय सम्बन्धी प्ररूपणा करनी चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणसोते वि एवं चेव / नवरं सहाणे छट्ठाणडिते / [551-3] मध्यमगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेष यह है कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित होता है। 552. [1] जहण्णगुणसीताणं प्रणतपदेसियाणे पुच्छा। गोयमा ! प्रणेता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णगुणसोते अणंतपदेसिए जहण्णगुणसीतस्स प्रणंतपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिते, ठितोए चउट्ठाणवडिते वण्णादिपज्जवेहि छट्ठाणवडित, सीतफासपज्जवेहि तुल्ले, अवसेसेहि सत्तफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते। [552-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [552-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं।) प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; शीतस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और शेष सात स्पर्शो के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] एवं उक्कोसगुणसोते वि / [552-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव / नवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिते। [552-3] मध्यमगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की पर्याय-सम्बन्धो प्ररूपणा भी इसी प्रकार करनी चाहिए। विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 553. एवं उसिणे निद्ध लुक्खे जहा सोते / परमाणुपोग्गलस्स तहेव पडिवक्खो, सव्वेसि न भण्णइ त्ति भाणितन्वं / [553] जिस प्रकार [जघन्यादियुक्त] शीतस्पर्श-स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org