________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 435 उनमें परस्पर विरोध है। इसी प्रकार जहाँ पुद्गल परमाण में शीतस्पर्श का कथन हो, वहाँ उष्णस्पर्श का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये दोनों स्पर्श परस्पर विरोधी हैं। इसी प्रकार अन्यान्य स्पर्शों के बारे में समझ लेना चाहिए / जैसे-स्निग्ध और रूक्ष, मृदु और कर्कश, लघु और गुरु परस्पर विरोधी स्पर्श हैं / एक ही परमाणु में ये परस्पर विरोधी स्पर्श भी नहीं रहते / अतएव परमाणु में इनका उल्लेख नहीं करना चाहिए।' जघन्यादि सामान्य पुदगल स्कन्धों की विविध अपेक्षाओं से पर्यायप्ररूपरणा 554. [1] जहण्णपदेसियाणं भंते ! खंधाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता। से केण?णं ? गोयमा ! जहण्णपदेसिते खंधे जहण्णपएसियस्स खंधस्स दम्वट्ठयाए तल्ले; पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय मन्भहिते-जति होणे पदेसहोणे, अह प्रभतिए पदेसमन्भतिए; ठितीए चउढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस- उरिल्लचउफासपज्जवेहि छटाणवड़िते / [554-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? |554-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि जघन्यप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ) ? उ.] गौतम ! एक जघन्यप्रदेशी स्कन्ध दूसरे जघन्यप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य हैं और कदाचित् अधिक है / यदि हीन हो तो एक प्रदेशहीन होता है, और यदि अधिक हो तो भी एक प्रदेश अधिक होता है। स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है और वर्ण, गन्ध, रस तथा ऊपर के चार स्पों के पर्यायों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] उक्कोसपएसियाणं भंते खंधाणं पुच्छा। गोयमा! प्रणंता। से केण?णं? गोयमा ! उक्कोसपएसिए खंधे उक्कोसपएसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुरुल, पएसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-अट्ठफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [554-2 प्र.] भगवन् उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? {554-2 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस अपेक्षा से आप ऐसा कहते हैं (कि उत्कृष्ट प्रदेशो स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं) ? [उ.] गौतम ! एक उत्कृष्ट प्रदेशी स्कन्ध, दूसरे उत्कृष्ट प्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से 1. प्रज्ञापनासूत्र प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 895 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org