________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [409 [505 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [505 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया है कि द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध, दूसरे द्विप्रदेशिक स्कन्ध से, द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तल्य है. अवगाहना की अपेक्षा कदाचित हीन है, कदाचित तल्य है और कदाचित अधिक है। यदि हीन हो तो एक प्रदेश हीन होता है / यदि अधिक हो तो एक प्रदेश अधिक होता है। स्थिति को अपेक्षा से चतु:स्थानपतित होता है, वर्ण आदि की अपेक्षा से और उपर्युक्त चार (शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष) स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होता है। 506. एवं तिपएसिए वि। नवरं प्रोगाहणठ्याए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अन्महितेजति होणे पएसहीणे वा दुपएसहोणे वा, अह अम्महिते पएसमन्महिते वा दुपएसमन्महिते वा। __[506] इसी प्रकार त्रिप्रदेशिक स्कन्धों के (पर्यायों के विषय में कहना चाहिए / ) विशेषता यह है कि अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। यदि हीन हो तो एकप्रदेशहीन या द्विप्रदेशों से हीन होता है। यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक अथवा दो प्रदेश अधिक होता है / 507. एवं जाव दसपएसिए / नवरं प्रोगाहणाए पएसपरिवुड्डी कायवा जाव दसपएसिए णवपएसहीणे ति। [507] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशिक स्कन्धों तक का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए / विशेष यह है कि अवगाहना की दृष्टि से प्रदेशों की (क्रमशः) वृद्धि करना चाहिए; यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध नौ प्रदेश-हीन तक होता है। 508. संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा! संखेज्जयएसिए खंधे संखेज्जपएसियस्स खंधस्स दव्वठ्ठयाए तुल्ले; पदेसठ्ठयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय प्रमाहिते-जति होणे संखेज्जभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा, प्रह प्रभइए एवं चेव; प्रोगाहणट्ठयाए वि दुट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-उवरिल्लचउफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [508 प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [508 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org