Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 410] [प्रज्ञापनासूत्र तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से कदाचित् होन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / यदि हीन हो तो, संख्यातभाग हीन या संख्यातगुण हीन होता है। यदि अधिक हो तो संख्यातभाग अधिक यासंख्यात गुण अधिक होता है / अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित होता है। स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होता है / वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शो के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होता है। 506. असंखेज्जपएसियाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति ? गोयमा ! प्रसंखेज्जपएसिए खंधे असंखेज्जपएसियस खंधस्स दबट्ट्याए तुल्ले, पएसठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्याए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणडिते, वण्णादि-उरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवडिते। [509 प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [509 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, दूसरे असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 510. अणंतपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केपट्टेणं भंते ! एवं वच्चति ? गोयमा ! प्रणंतपएसिए खंधे प्रणंतपएसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणबडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवड़िते। [510 प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [510 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.) भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? उ. गौतम ! एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org