________________ 422] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला द्विप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य हैं, अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / यदि हीन हो तो एकप्रदेश हीन और यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक है। स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है और वर्णादि तथा चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसठितीए वि। [533.2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव / नवरं ठितीए चउढाणवडिते / [533-3] मध्यम स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए / विशेषता यह है कि स्थिति की अपेक्षा से वह चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) है / 534. एवं जाव दसपदेसिते। नवरं पदेसपरिवुड्डी कातव्वा / प्रोगाहणट्टयाए तिसु वि गमएसु जाव दसपएसिए णव पएसा बडिज्जति / [534] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक के पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए। विशेष यह है कि इसमें एक-एक प्रदेश की क्रमशः परिवृद्धि करनी चाहिए / अवगाहना के तीनों गमों (मालापकों) में यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक ऐसे ही कहना चाहिए। (क्रमश:) नौ प्रदेशों की वृद्धि हो जाती है। 535. [1] जहण्णद्वितीयाणं भंते ! संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा / गोयमा! अणंता। से केणढणं? गोयमा ! जहण्णद्वितीए संखेज्जपदेसिए खंधे जहण्णठितीयस्स संखेज्जपएसियस खंधस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए दुट्ठाणडिते, प्रोगाहणट्टयाए दुट्ठाणवडिते, ठितीए तुल्ले, वण्णादि-चउफासेहि य छट्ठाणवाडिते। [535-1 प्र.] जघन्य स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [535-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे गए हैं / ) [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेश की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, वर्णादि तथा चतुःस्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org