________________ 416 [ प्रज्ञापनासूत्र अधिक होता है। इसीलिए इसे द्विस्थानपतित कहा है / अवगाहना की दृष्टि से भी वह द्विस्थानपतित है। स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है / वर्णादि में तथा पूर्वोक्त चतुःस्पर्शों में षट्स्थानपतित समझना चाहिए। अनन्तप्रदेशी स्कन्ध प्रवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित ही क्यों ? अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित ही होता है, षट्स्थानपतित नहीं. क्योंकि लोकाकाश के असंख्यातप्रदेश ही हैं और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी अधिक से अधिक असंख्यात प्रदेशों में ही अवगाहन करता है / अतएव उसमें अनन्तभाग एवं अनन्तगुण हानि-वृद्धि की सम्भावना नहीं है। इस कारण वह षट्स्थानपतित नहीं हो सकता / हाँ, वर्णादि के पर्यायों की अपेक्षा से एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से वर्णादि की दृष्टि से अनन्त-असंख्यात-संख्यातभाग हीन, अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण हीन, अनन्तगुण हीन और इसी प्रकार अधिक भी हो सकता है। इसलिए इसमें षट्स्थानपतित हो सकता है।' एकप्रदेशावगाढ़ परमाणु प्रदेशों की दृष्टि से षट्स्थानपतित हानिवृद्धिशील--द्रव्य की अपेक्षा से तल्य होने पर भी प्रदेशों की अपेक्षा से इसमें षटस्थानपतित हीनाधिकता है। क्योंकि एकप्र परमाणु भी एक प्रदेश में रहता है और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी एक ही प्रदेश में रह सकता है। किन्तु अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है। स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है तथा वर्णादि एवं चतुःस्पर्शो की दृष्टि से षट्स्थानपतित होता है / असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित---च कि लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश हैं, जिनमें पुद्गलों का अवगाहन है। अत: अनन्तप्रदेशों में किसी भी पुद्गल की अवगाहना संभव नहीं है / 2 / संख्यातगुण काला पुदगल स्वस्थान में द्विस्थानपतित-संख्यातगुण काला पुद्गल या तो संख्यातभाग हीन कृष्ण होता है अथवा संख्यातगुण हीन कृष्ण होता है। अगर अधिक हो तो संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण अधिक होता है / ___ अनन्तगुण काला पुद्गल स्वस्थान में षट्स्थानपतित-अनन्तगुण काले एक पुद्गल में दूसरा अनन्तगुण काला पुद्गल अनन्तभाग हीन, असंख्यातभाग हीन, संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुण हीन, असंख्यातगुण हीन अनन्तगुण हीन होता है / यानी वह षट्स्थानपतित होता है। जघन्यादि विशिष्ट अवगाहना एवं स्थिति वाले द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक की पर्यायप्ररूपरणा 525. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! दुपएसियाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति ? 1. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 202, 2. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 203, 3. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 203-204, (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, पृ. 811 से 813 (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, पृ. 814 से 819 तक (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, पृ. 821-822 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org