________________ [प्रज्ञापनासूत्र [158 उ.] गौतम ! जहाँ बादर-वायुकायिक-पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं बादरवायुकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) सर्वलोक में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से -(वे) सर्वलोक में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यात भागों में हैं। 156. कहि णं भंते ! सुहमबाउकाइयाणं पज्जतगाणं अपज्जतगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सहुमवाउकाइया जे य पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा प्रविसेसा प्रणाणत्ता सवलोयपरियावण्णगा पणत्ता समणाउसो! / [156 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मवायुकायिकों के पर्याप्तों और अपर्याप्तों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [156 उ.] गौतम ! सूक्ष्मवायुकायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, अविशेष (विशेषता या भेद से रहित) हैं, नानात्व से रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो! वे सर्वलोक में परिव्याप्त हैं। विवेचनवायुकायिकों के स्थानों का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 157 से 156 तक) में वायुकायिक जीवों के बादर, सूक्ष्म और उनके पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों के स्थानों का निरूपण तीनों अपेक्षाओं से किया गया है। ___ 'भवणछिद्देसु' भवणिक्खुडे' प्रादि पदों के विशेषार्थ--भवणछिद्देस = भवनपतिदेवों के भवनों के छिदों--अवकाशान्तरों में / "मवणणिक्खुडेसु' = भवनों के निष्कुटों अर्थात् गवाक्ष आदि के समान भवनप्रदेशों में। णिरयणिक्खुडेसु = नरकों के निष्कुटों यानी गवाक्ष आदि के समान नरकावास प्रदेशों में / ' पर्याप्त बादरवायुकायिक : उपपात आदि तीनों की अपेक्षा से ये तीनों की अपेक्षा से लोक के असंख्यात भागों में हैं; क्योंकि जहाँ भी खाली जगह है-पोल है, वहाँ वायु बहती है। लोक में खाली जगह (पोल) बहुत है। इसलिए पर्याप्त वायुकायिक जीव बहुत अधिक हैं / इस कारण उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से बादर पर्याप्तवायुकायिक लोक के असंख्येय भागों में __ अपर्याप्त बादरवायुकायिकों के स्थान--उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से अपर्याप्त बादरवायुकायिक जीव सर्वलोक में व्याप्त हैं; क्योंकि देवों और नारकों को छोड़ कर शेष सभी कायों से जीव बादर अपर्याप्तवायुकायिकों में उत्पन्न होते हैं / विग्रहगति में भी बादर अपर्याप्तवायुकायिक पाए जाते हैं तथा उनके बहुत-से स्वस्थान हैं। अतएव व्यवहारनय की दृष्टि से भी उपपात को लेकर बादरप र्याप्त-अपर्याप्तवायुकायिकों की सकललोकव्यापिता में कोई बाधा नहीं है। समुद्घात की अपेक्षा से उनकी समग्रलोकव्यापिता प्रसिद्ध ही है; क्योंकि समस्त सूक्ष्म जीवों में और लोक में सर्वत्र वे उत्पन्न हो सकते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से बादर-अपर्याप्तवायुका यिकजीव लोक के असंख्येयभागों में होते हैं, यह पहले बतलाया जा चुका है। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 78 2. प्रज्ञापनासूत्र, मलय वृत्ति, पत्रांक 78 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org