________________ 360] [प्रज्ञापनासूत्र त्रीन्द्रिय हैं, असंख्यात चतुरिन्द्रिय हैं, असंख्यात पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यन्तर देव हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं और अनन्त हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि वे (जीवपर्याय) संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं। विवेचन-पर्याय के प्रकार और अनन्त जोवपर्याय का सयुक्तिक निरूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 438-436) में पर्याय के दो प्रकारों तथा जीवपर्याय की अनन्तता का युक्तिपूर्वक निरूपण किया गया है। पर्याय : स्वरूप पीर समानार्थक शब्द-यद्यपि पिछले पद में नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव आदि के रूप में जीवों को स्थितिरूप पर्याय का प्रतिपादन किया गया है, तथापि औदयिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भावरूप जीवपर्यायों का तथा पुद्गल आदि अजीव-पर्यायों का निश्चय करने के लिए इस पद का प्रतिपादन किया गया है। जोव और अजीव दोनों द्रव्य हैं। द्रव्य का लक्षण ‘गुण-पर्यायवत्त्व' कहा गया है। इसीलिए इस पद में जीव और अजीव दोनों के पर्यायों का निरूपण किया गया है / पर्याय, पर्यव, गुण, विशेष और धर्म; ये प्रायः समानार्थक शब्द हैं। पर्यायों का परिमाण जानने की दृष्टि से गौतम स्वामी इस प्रकार का प्रश्न करते हैं कि जीव के पर्याय संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? भगवान् ने जीव के पर्याय अनन्त इसलिए बताए कि जब पर्याय वाले (बनस्पतिकायिक, सिद्ध जीव आदि) अनन्त हैं तो पर्याय भी अनन्त हैं। यद्यपि वनस्पतिकायिकों और सिद्धों को छोड़ कर नैरयिक आदि सभी असंख्यात-असंख्यात हैं, किन्तु उक्त दोनों अनन्त हैं, इस अपेक्षा से जीव के पर्याय समुच्चय रूप से अनन्त ही कहे जाएंगे। संख्यात या असंख्यात नहीं।' नरयिकों के अनन्तपर्याय : क्यों और कैसे ? 440. नेरइयाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं कुच्चति नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स दन्वट्ठयाए तुल्ले, पदेस?ताए तुल्ले; भोगाहणटुताए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए-जति होणे असंखेज्जतिभागहोणे वा संखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोने वा, अह अम्भहिए असंखेज्जभागभहिए वा संखेज्जभागभहिए वा संखेज्जगुणमभहिए वा असंखेज्जगुणमब्महिए वा; ठिईए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अभहिए-~-जइ होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जति भागहीणे वा संखेज्जगुणहोणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अमहिए असंखेज्जइभागमभ हिए वा संखेज्जइमागमभहिए वा संखेज्जइगुणहिए वा असंखेज्जइगुणभहिए वा; कालवणपज्जवेहि सिय होणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए-जदि होणे अणंतभागहीणे वा असंखेज्जइभागहीणे वा संखेज्जइ. भागहीणे वा संखिज्जइगुणहीणे वा असंखिज्जइगुणहोणे वा प्रणंतगुणहीणे वा, अह अब्भहिए प्रणंतभाग१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 179 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org