________________ 380] [ प्रज्ञापनासून वाला हो सकता है। अनन्तपर्याय वाला होते हुए भी वह द्रव्य से एक है, जैसे कि अन्य नारक एक-एक हैं। इसी प्रकार प्रत्येक नारक जीव लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेशों वाला होता है, इसलिए प्रदेशों की अपेक्षा से भी वह तुल्य है; तथा अवगाहना की दृष्टि से भी तुल्य है, क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना का एक ही स्थान है, उसमें तरतमता-हीनाधिकता संभव नहीं है। स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित-जघन्य अवगाहना वाले नारकों की स्थिति में समानता का नियम नहीं है। क्योंकि एक जघन्य अवगाहना वाला नारक 10 हजार वर्ष की स्थितिवाला रत्नप्रभापृथ्वी में होता है और एक उत्कृष्ट स्थितिवाला नारक सातवीं पृथ्वी में होता है / इसलिए जघन्य या उत्कृष्ट अवगाहना वाला नारक स्थिति की अपेक्षा असंख्यातभाग या संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण हीन भी हो सकता है / अथवा असंख्यातभाग या संख्यातभाग अधिक अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण अधिक भी हो सकता है / इसलिए स्थिति की अपेक्षा से नारक चतु:स्थानपतित होते हैं। जघन्य अवगाहना वाले नारक को तीन ज्ञान या तीन अज्ञान कैसे ?--कोई गर्भज-संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नारकों में उत्पन्न होता है, तब वह नरकायु के वेदन के प्रथम समय में ही पूर्वप्राप्त औदारिकशरीर का परिशाटन करता है, उसी समय सम्यग्दृष्टि को तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि को तीन अज्ञान उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात् अविग्रह से या विग्रह से गमन करके वह वैक्रियशरीर धारण करता है, किन्तु जो सम्मूच्छिम असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नरक में उत्पन्न होता है, उसे उस समय विभंगज्ञान नहीं होता। इस कारण जघन्य अवगाहना वाले नारक को भजना से दो या तीन अज्ञान होते हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए। उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक स्थिति की अपेक्षा से द्विस्थानपतित-उत्कृष्ट अवगाहना वाले सभी नारकों की स्थिति समान ही हो, या असमान ही हो, ऐसा नियम नहीं है / असमान होते हए यदि हीन हो तो वह या तो असंख्यातभागहीन होता है या संख्यातभागहीन और अगर अधिक हो तो असंख्यातभाग अधिक या संख्यातभाग अधिक होता है। इस प्रकार स्थिति की अपेक्षा से द्विस्थानपतित होनाधिकता समझनी चहिए / यहाँ संख्यातगुण और असंख्यातगुण हीनाधिकता नहीं होती, इसलिए चतु:स्थानपतित सम्भव नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक 500 धनुष्य की ऊँचाई वाले सप्तम नरक में ही पाए जाते हैं; और वहाँ जघन्य बाईस और उत्कृष्ट 33 सागरोपम की स्थिति है। अतएव इस स्थिति में संख्यात-असंख्यातभाग हानिवृद्धि हो सकती है, किन्तु संख्यात-असंख्यातगुण हानि-वृद्धि की संभावना नहीं है।' उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारकों में तीन ज्ञान या तीन प्रज्ञान नियम से-उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारकों में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियमतः होते हैं, भजना से नहीं क्योंकि उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारकों में सम्मूच्छिम असंज्ञीपंचेन्द्रिय की उत्पत्ति नहीं होती। अतः उत्कृष्ट अवगाहना वाला नारक यदि सम्यग्दृष्टि हो तो तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि हो तो तीन अज्ञान नियमतः होते हैं। मध्यम (अजघन्य-अनुत्कृष्ट) अवगाहना का अर्थ-जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के बीच की अवगाहना अजघन्य-अनुत्कृष्ट या मध्यम अवगाहना कहलाती है। इस अवगाहना का जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के समान नियत एक स्थान नहीं है। सर्वजघन्य अवगाहना अंगुल के 1. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 188, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 632 से 638 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org