Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 394 ] [प्रज्ञापनासूत्र जोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले, पएसद्वयाए तुल्ले, प्रोगाहणद्वयाए चउदाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, प्रवसेसेहिं वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं तिहि जाणेहि तिहि अण्णाहिं तिहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिते। [483-1 प्र.) भगवन् ! जघन्यगुणकृष्ण पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के कितने पर्याय हैं ? [483-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि 'जघन्यगुणकृष्ण पंचेन्द्रियतिर्यंचों के अनन्त पर्याय हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य गुण काला पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, दूसरे जघन्यगुण काले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुः स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, शेष वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के तथा तीन ज्ञान, तीन अज्ञान एवं तीन दर्शनों की अपेक्षा से षस्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [483-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के पर्यायों के विषय में भी समझना चाहिए।) [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / णवरं सदाणे छट्ठाणवडिते। [483-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के (पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि वे स्वस्थान (कृष्णगुणपर्याय) में भी षट्स्थानपतित हैं / 484. एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा / [454] इस प्रकार पांचों वर्णो, दो गन्धों, पांच रसों और आठ स्पर्शों से (युक्त तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए।) 485. [1] जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं भंते ! पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केण?णं भंते ! एवं बुच्चति ? / गोयमा ! जहण्णाभिणिबोहियणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वठ्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठित्तीए चउट्ठाणवडिते, वण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, प्राभिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, सुयणाणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, चक्खुदंसणपज्जवेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते / [485-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य प्राभिनिवोधिकज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org