________________ 402] [प्रज्ञापनासूत्र रस और स्पर्श के पर्यायों एवं दो ज्ञानों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है. मनःपर्यवज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसोहिणाणी वि / [495-2] इसी प्रकार का (कथन) उत्कृष्ट अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के विषय में (करना चाहिए / ) [3] अजहण्णमणुक्कोसोहिणाणी वि एवं चेव / णवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए / [495-3] इसी प्रकार मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि पाठान्तर की अपेक्षा से–'अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्वस्थान में वह षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / 466. जहा प्रोहिणाणी तहा मणयज्जवणाणी वि भाणितवे / नवरं प्रोगाहणट्टयाए तिट्टाणवडिए / जहा प्राभिणिबोहियणाणी तहा मतिअण्णाणो सुतअण्णाणी य भाणितवे। जहा प्रोहिणाणी तहा विभंगणाणी वि भाणियन्वे / चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी य जहा प्राभिणिबोहियणाणी / ओहिदसणी जहा प्रोहिणाणो / जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णस्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा स्थि, जत्थ दसणा तत्थ णाणा वि अण्णाणा वि। [496] जैसा (जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम) अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के विषय में कहा, वैसा ही (जघन्यादियुक्त) मनःपर्यायज्ञानी (मनुष्यों) के (पर्यायों के) विषय में कहना चाहिए / विशेषता यह है कि अवगाहना की अपेक्षा से (वह) त्रिस्थानपतित है। जैसा (जघन्यादियुक्त) प्राभिनिबोधिक ज्ञानियों के पर्यायों के विषय में कहा है, वैसा ही मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के विषय में (कहना चाहिए / ) जिस प्रकार (जघन्यादिविशिष्ट) अवधिज्ञानी (मनुष्यों) का (पर्याय-विषयक) कथन किया है, उसी प्रकार विभंगज्ञानी (मनुष्यों) का (पर्यायविषयक) कथन करना चाहिए। चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी (मनुष्यों) का (पर्यायविषयक) कथन आभिनिबोधिकज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के समान है। अवधिदर्शनी का (पर्यायविषयक) कथन अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायविषयक कथन) के समान है। जहाँ ज्ञान होते हैं, वहाँ अज्ञान नहीं होते जहाँ अज्ञान होते हैं, वहां ज्ञान नहीं होते और जहाँ दर्शन हैं, वहां ज्ञान एवं प्रज्ञान दोनों में से कोई भी संभव है। 417. केवलणाणोणं भंते ! मणस्साणं केवतिया पज्जका पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ केवलणामीणं मणुस्साणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! केवलनाणी मणूसे केवलणाणिस्स मणूसस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए तुल्ले, ओगाहणठ्ठयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिढाणडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, केवल. णाणपज्जवेहि केवलदसणपज्जवेहि य तुल्ले / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org