Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 400] [प्रज्ञापनासून. [461-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [461-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जघन्यगुण काले मनुष्यों के अनन्तपर्याय हैं ? _ [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला मनुष्य दूसरे जघन्यगुण काले मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है; तथा अवशिष्ट वर्णों, गन्धों, रसों और स्पर्शों के पर्यायों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; चार ज्ञानों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है और केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [491-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले मनुष्यों के (पर्यायों के) विषय में भी (समझना चाहिए।) [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते। [461-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले मनुष्यों का पर्याय-विषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए / विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं / 462. एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा भाणितव्वा / [462] इसी प्रकार पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस एवं पाठ स्पर्श वाले मनुष्यों का (पर्यायविषयक) कथन करना चाहिए / 463. [1] जहण्णामिणिबोहियणाणोणं भंते ! मणुस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा! जहण्णाभिणिबोहियणाणी मणूसे जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स मणसस्स दबट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणडिते, वण्ण-गंध-रसफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, प्रामिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, सुतणाणपज्जवेहि दोहिं दसणेहि छठाणवडिते। [463-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य प्राभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [463-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य दूसरे जघन्य प्राभिनियोधिक-ज्ञानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org