________________ 398 ] प्रज्ञापनासूत्र जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम अवगाहनादि वाले मनुष्यों की पर्यायप्ररूपरणा 486. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! मणुस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णता। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहण्णोगाहणगाणं मणुस्साणं प्रणता पज्जवा पणत्ता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए मणसे जहण्णोगाहणगस्स मणूसस्स दव्वट्ठयाते तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं तिहिं णाणेहिं दोहि अण्णाणेहि तिहि दंसणेहिं छट्ठाणवडिते। [486-1 प्र.) भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [486-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे गए हैं / [प्र. भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता हैं कि 'जघन्य अवगाहना वाले मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला मनुष्य, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है, (किन्तु) स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, एवं तीन ज्ञान, दो अज्ञान और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / नवरं ठितीए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिते--- जति होणे असंखेज्जतिभागहीणे, अह अभहिए असंखेज्जतिभागमभहिते; दो णाणा दो अण्णाणा दो दसणा। [486-2] उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / यदि होन हो तो असंख्यातभाग हीन होता है, यदि अधिक हो तो असंख्यात भाग अधिक होता है। उनमें दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन होते हैं / [3] अजहण्णमणुक्कोसोगाहणाए वि एवं चेव / णवरं ओगाहणटुयाए चउट्ठाणवडिते, ठितोए चउट्ठाणवडिते, पाइल्लेहि चउहि नाणेहि छट्ठाणवडिते, केवलणाणपज्जवेहि तुल्ले, तिहि अण्णाणेहि तिहिं दंसणेहि छट्ठाणवडिते, केवलदसणपज्जवेहिं तुल्ले / [486-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले मनुष्यों का (पर्याय-विषयक कथन) भी इसी प्रकार करना चाहिए / विशेष यह है कि अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, तथा आदि के चार ज्ञानों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा तीन अज्ञान और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org