________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 397 ही होता है, असंख्यातवर्षों की आयु वाले के जघन्य अवगाहना नहीं होती। इसी कारण यहां जघन्य अवगाहनावान् तियंचपंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित कहा गया है, जिसका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। जघन्य अवगाहना वाले तिर्यचपंचेन्द्रिय में अवधि या विभंगज्ञान नहीं-जघन्य अवगाहना वाला पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्त होता है, और अपर्याप्त होकर अल्पकाय वाले जीवों में उत्पन्न होता है, इसलिए उसमें अवधिज्ञान या विभंगज्ञान संभव नहीं। इस कारण से यहाँ दो ज्ञानों और दो अज्ञानों का ही उल्लेख है। यद्यपि आगे कहा जाएगा कि कोई जीव विभंगज्ञान के साथ नरक से निकल कर संख्यात वर्षों की आयु वाले पंचेन्द्रियतिथंचों में उत्पन्न होता है, किंतु वह महाकायवालों में हो उत्पन्न हो सकता है, अल्पकाय वालों में नहीं / इसलिए कोई विरोध नहीं समझना चाहिए। अवगाहना में षट्स्थानपतित होता नहीं है / मध्यम अवगाहना वाला पंचेन्द्रिय तियंच अवगाहना एवं स्थिति को दृष्टि से चतुःस्थानपतित-चूकि मध्यम अवगाहना अनेक प्रकार की होती है; अतः उसमें संख्यात-असंख्यातगुणहीना. धिकता हो सकती है तथा मध्यम अवगाहना वाला असंख्यातवर्ष की आयुवाला भी हो सकता है, इसलिए स्थिति की अपेक्षा से भी वह चतु:स्थानपतित है। उत्कृष्ट स्थिति वाले तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय को पर्यायवक्तव्यता-उत्कृष्ट स्थिति वाले पंचेन्द्रियतिर्यच तीन पल्योपम की स्थिति वाले होते हैं / अतः उनमें दो ज्ञान दो अज्ञान होते हैं। जो ज्ञान वाले होते हैं, वे वैमानिक की आयु बांध लेते हैं, तब दो ज्ञान होते हैं / इस प्राशय से उनमें दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान कहे हैं।' मध्यम स्थिति वाला तियंचपंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित-मध्यम स्थिति वाला तिर्यंचपंचेन्द्रिय संख्यात अथवा असंख्यात वर्ष की आयु वाला भी हो सकता है, क्योंकि एक समय कम तीन पल्योपम की आयुवाला भी मध्यमस्थितिक कहलाता है / अत: वह चतुःस्थानपतित है। प्राभिनिबोधिक ज्ञानी तियंचपंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा चतःस्थानपतित-असंख्यात वर्ष की प्रायु वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में भी अपनी भूमिका के अनुसार जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान पाए जाते हैं / इसी प्रकार संख्यातवर्ष की आयु वालों में जघन्य मतिश्रुतज्ञान संभव होने से यहाँ स्थिति की अपेक्षा से इसे चतुःस्थानपतित कहा है / मध्यम प्राभिनिबोधिकज्ञानी तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से षटस्थानपतित-क्योंकि आभिनिबोधिक ज्ञान के तरतमरूप पर्याय अनन्त होते हैं / अतएव उनमें अनन्तगुणहीनता-अधिकता भी हो सकती हैं। मध्यम अवधिज्ञानो तिथंचपंचेन्द्रिय स्वस्थान में षट्स्थानपतित-इसका मतलब है वह स्वस्थान अर्थात् मध्यम अवधिज्ञान में षट्स्थानपतित होता है। एक मध्यम अवधिज्ञानी दूसरे मध्यम-अवधिज्ञानी तिर्यंचपंचेन्द्रिय से षट्स्थानपतितहीना अधिक हो सकता है। विभंगज्ञानी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित--चू कि अवधि ज्ञान और विभंगज्ञान असंख्यातवर्ष की आयु वाले को नहीं होता, अतःअवधिज्ञान और विभंगज्ञान में नियम से' त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) होता है। 1. (क) प्रज्ञापना. म. बत्ति, पत्रांक 193-194, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 2, पृ. 721 से 727 तक 2 (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 194, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 2, पृ. 728 से 737 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org