________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [395 [485-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि 'जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, श्रुतज्ञान के पर्यायों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, तथा चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। __ [2] एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि / गवरं ठितीए तिटठाणवडिते, तिणि गाणा, तिण्णि दसणा, सटठाणे तुल्ले, सेसेसु छट्ठाणबडिते / [485-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट प्राभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रिय-तिर्यचों का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तीन ज्ञान, तीन दर्शन तथा स्वस्थान में तुल्य है, शेष सब में षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / [3] अजहण्णुक्कोसाभिणिबोहियणाणी जहा उक्कोसाभिणिबोहियणाणी / णवरं ठितीए चउठासबडिते, सट्ठाणे छट्ठाणवडिते। [485.3] मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानो तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों का पर्यायविषयक कथन, उत्कृष्ट अभिनिबोधिकज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की तरह समझना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति को अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है; तथा स्वस्थान में षट्स्थानपतित है / 486. एवं सुतणाणी वि। [486] जिस प्रकार (जघन्यादिविशिष्ट) आभिनिबोधिक ज्ञानी तिर्यञ्चपंचेन्दिय के पर्यायों के विषय में कहा है, उसी प्रकार (जघन्यादियुक्त) श्रुतज्ञानो तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। 487. जहण्णोहिणाणोणं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वच्चति ? गोयमा ! जहण्णोहिणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णोहिणाणिस्स पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स दध्वट्ठयाते तुल्ले, पदेसट्टयाते तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाते चउट्ठाणवडिते, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्णगंध-रस-फासपज्जवेहि प्राभिणिबोहियणाण-सुतणाणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते, ओहिणाणपज्जवेहि तुल्ले, अण्णाणा णत्थि, चक्खुदंमणपज्जवेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते / [487-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org