________________ 386] [ प्रज्ञापनासूत्र 472. एवं जाव वणफइकाइयाणं / [472] (जिस प्रकार जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम मति-श्रुताज्ञानी एवं अचक्षुदर्शनी पृथ्वीकायिकपर्यायों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक का (पर्यायविषयक कथन करना चाहिए।) _ विवेचन--जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम प्रवगाहनादियुक्त पृथ्वीकायिक प्रादि पंच स्थावरों को पर्यायविषयक प्ररूपणा~प्रस्तुत सात सूत्रों (सू-४६६ से 472 तक) में जघन्य मध्यम एवं उत्कृष्ट अवगाहना से लेकर अचक्षुदर्शन तक से युक्त पृथ्वीकायिक आदि पांच एकेन्द्रिय जीवों का पर्यायविषयक कथन किया गया है / ___ जघन्यादियुक्त प्रवगाहना वाले पृथ्वीकायिक प्रादि का अवगाहना की दृष्टि से पर्याय परिमाणजघन्य और उत्कृष्ट अवगाहनावाले दो पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से परस्पर तुल्य होते हैं ! किन्तु मध्यम अवगाहना वाले दो पृथ्वीकायिकादि अवगाहना की अपेक्षा से स्वस्थान में परस्पर चतुःस्थानपतित होते हैं / अर्थात्-एक मध्यम अवगाहना वाला पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, दूसरे मध्यम अवगाहनावाले पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय से अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होता है, क्योंकि सामान्यरूप से मध्यम अवगाहना होने पर भी वह विविध प्रकार की होती है। जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना की भाँति उसका एक ही स्थान नहीं होता। कारण यह है कि पृथ्वीकायिक आदि के भव में पहले उत्पत्ति हुई हो, उसे स्वस्थान कहते हैं। इस प्रकार के स्वस्थान में असंख्यात वर्षों का प्रायुष्य संभव होने से असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन होता है, अथवा असंख्यातभाग अधिक, संख्यात भाग अधिक या संख्यातगुण अधिक अथवा असंख्यातगुण अधिक होता है। इस प्रकार चतुःस्थानपत्तित होता है। इसी प्रकार स्थिति, वर्णादि, मति-श्रुताज्ञान एवं अचक्षुदर्शन से युक्त पृथ्वीकायिकादि की हीनाधिकता अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होती है।' __जघन्यादि स्थिति प्रादि वाले पृथ्वीकायिकादि का विविध अपेक्षानों से पर्याय-परिमाणस्थिति की अपेक्षा से एक पृथ्वीकायिक आदि दूसरे पृथ्वीकायिक आदि से तुल्य होता है, किन्तु अवगाहना, वर्णादि, तथा मति-श्रुताज्ञान के एवं अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य नहीं होता है; क्योंकि पृथ्वीकायिक आदि की स्थिति संख्यातवर्ष की होती है, यह बात पहले समुच्चय पृथ्वीकायिकों की वक्तव्यता के प्रसंग में कही जा चुकी है। इसलिए जघन्यादियुक्त अवगाहनादि बाले पृथ्बीकायिक आदि परस्पर यदि हीन हो तो असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन होता है, यदि अधिक हो तो असंख्यातभाग-अधिक, संख्यातभाग-अधिक अथवा संख्यातगुण-अधिक होता है। वह पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार असंख्यातगुण हीन या अधिक नहीं होता। पूर्वोक्त पृथ्वीकायिक प्रादि में दो अज्ञान और अचक्षुदर्शन को ही प्ररूपणा क्यों ? -पृथ्वीकायिक आदि में सभी मिथ्यादृष्टि होते हैं। इनमें सम्यक्त्व नहीं होता, और न सम्यग्दृष्टि जीव पृथ्वीकायिकादि में उत्पन्न होता है / अतएव उनमें दो अज्ञान ही पाए जाते हैं। इसी कारण यहाँ 1. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 193, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 2, पृ. 675 से 678 2. (क) प्रज्ञापना. म. वत्ति, पत्रांक 193, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 2, . 679-680 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org