________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [387 दो अज्ञानों को ही प्ररूपणा की गई है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि में चक्षुरिन्द्रिय का अभाव होने से चक्षुदर्शन भी नहीं होता। इसलिए यहां केवल अचक्षुदर्शन की हो प्ररूपणा की गई है / ' मध्यम वर्णादि से युक्त गुण वाले पृथ्वीकायिकादि का पर्यायपरिमाण-जैसे जघन्य और उत्कृष्ट कृष्ण वर्ण आदि का स्थान एक ही होता है, उनमें न्यूनाधिकता का सम्भव नहीं, उस प्रकार से मध्यम कृष्णवर्ण का स्थान एक नहीं है / एक अंश काला कृष्णवर्ण आदि जघन्य होता है और सर्वाधिक अंशों वाला कृष्ण वर्ण आदि उत्कृष्ट कहलाता है। इन दोनों के मध्य में कृष्णवर्ण आदि के अनन्त विकल्प होते हैं / जैसे-दो गुण काला, तीन गुण काला, चार गुण काला, दस गुण काला, संख्यातगुण काला, असंख्यातगुण काला, अनन्तगूण काला / इसी प्रकार अन्य वर्णों तथा गन्ध, रस और स्पों के बारे में समझ लेना चाहिए। अतएव जघन्य गुण काले से ऊपर और उत्कृष्ट गुण काले से नीचे कृष्ण वर्ण के मध्यम पर्याय अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि जघन्य और उत्कृष्टगुण वाले इत्यादि का पर्याय एक है, किन्तु मध्यमगुण कृष्णवर्ण आदि के पर्याय अनन्त हैं। यही कारण है कि दो पृथ्वीकायिक जीव यदि मध्यमगुण कृष्णवर्ण हों, तो भी उनमें अनन्तगुणहोनता और अधिकता हो सकती है / इसी अभिप्राय से यहाँ स्वस्थान में भी सर्वत्र षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता बताई है। इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र षट्स्थानपतित समझ लेना चाहिए। पृथ्वोकायिकों की तरह अन्य एकेन्द्रियों का पर्याय-विषयक निरूपण--सूत्र 472 में बताये अनुसार पृथ्वीकायिक सूत्र की तरह अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जोवों के जघन्य, उत्कृष्ट एवं मध्यम, द्रव्य, प्रदेश, अवगाहना, स्थिति, वर्णादि तथा ज्ञान-अज्ञानादि की दृष्टि से पर्यायों की यथायोग्य हीनाधिकता समझ लेनी चाही / ' जघन्यादियुक्त अवगाहनादि विशिष्ट विकलेन्द्रियों के पर्याय 473. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं बेइंदियाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए बेइंदिए जहण्णोगाहणगस्स बेइंदियस्स दवट्टयाए तुल्ले, पएसटुयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं दोहिं णाणेहि दोहि अण्णाणेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। _[473-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [473-1 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला द्वीन्द्रिय, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय 1. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 193, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 2, पृ. 682 2. (क) प्रजापना. म. वृत्ति, पत्रांक 193, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टोका, भा. 2, पृ.६८२ से 684 तक 3. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 2, पृ.६८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org