________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपव)] [385 पांव रसों और पाठ स्पर्शों (से युक्त पृथ्वोकायिकों के पर्यायों) के विषय में (पूर्वोक्तसूत्रानुसार) कहना चाहिए। 470. [1] जहण्णमतिप्रणाणोणं भंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुमति जहण्णमतिअण्णाणोणं पुढविकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! जहण्णमतिअण्णाणी पुढविकाइए जहण्णमतिअण्णाणिस्स पुढविकाइयस्स दबढयाए तुल्ले, पदेसटुयाए तुल्ले, मोगाहणट्टयाए च उढाणवडिते, ठितोए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणडिते, मतिअण्णाणपज्जवेहि तुल्ले, सुयप्रण्माण पज्जवेहि अचखुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [470-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [470-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? उ.] गौतम ! एक जघन्य'मति-अज्ञानो पृथ्वोकायिक, दूसरे जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित है; तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; मति-अज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है; (किन्त) श्रुत-अज्ञान के पर्यायों तथा अचक्षु-दर्शन के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित (होनाधिक) है। [2] एवं उक्कोसमतिअण्णाणी वि / [470-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट-मति-अज्ञानी (पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में कथन करना चाहिए / ) [3] प्रजहण्णमणुक्कोसमइअण्णाणी वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते / [470-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट-मति-अज्ञानी (पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों) के विषय में भी इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि यह स्वस्थान अर्थात् मति-अज्ञान के पर्यायों में भी षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। 471. एवं सुयअण्णाणी वि / अचवखुदंसणी वि एवं चेव / [471] (जिस प्रकार जघन्यादियुक्त मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में कहा गया है) उसी प्रकार श्रुत-अज्ञानी तथा प्रचक्षुदर्शनी पृथ्वीकायिक जीवों का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org