Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 39. ] [प्रज्ञापनासूत्र याए तुल्ल, पएसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रसफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, आभिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, सुयणाणपज्जवेहिं छट्ठाणडिते, प्रचक्खुदसणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते। ' [477-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य-प्राभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे [477-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय, दूसरे जघन्य प्राभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय से द्रव्यापेक्षया तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षया तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों को अपेक्षा से तुल्य है; श्रुतज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, तथा अचक्षुदर्शनपर्यायों की अपेक्षा से भी षट्स्थानपतित है / [2] एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि। [477-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के (पर्यायों के विषय में कहना चाहिए / ) __ [3] प्रजहण्णमणुक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि एवं चेव / गवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिते। (477-3] मध्यम-आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार से करना चाहिए किन्तु वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 478. एवं सुतणाणी वि, सुतअण्णाणी वि, मतिअण्णाणी वि, प्रचक्खुदंसणी वि / गवरं जत्थ गाणा तस्थ अण्णाणा स्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ गाणा गस्थि / जस्थ दंसणं तत्थ गाणा वि अण्णाणा वि। [478] इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, मलि-अज्ञानी और अचक्षुदर्शनी द्वीन्द्रिय जीवों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए / विशेषता यह है कि जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ अज्ञान नहीं होते, जहाँ अज्ञान होता है, वहाँ ज्ञान नहीं होते। जहाँ दर्शन होता है, वहाँ ज्ञान भी हो सकते हैं और अज्ञान भी। 476. एवं तेइंदियाण वि। [479] द्वीन्द्रिय के पर्यायों के विषय में कई अपेक्षाओं से कहा गया है, उसी प्रकार त्रीन्द्रिय के पर्याय-विषय में भी कहना चाहिए / 480. चरिदियाण वि एवं चेव / णवरं चक्खुदंसणं अमहियं / [480] चतुरिन्द्रिय जीवों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / अन्तर केवल इतना है कि इनके चक्षुदर्शन अधिक है / (शेष सब बातें द्वीन्द्रिय की तरह हैं / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org