________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद ] [ 361 . विवेचन-जघन्यादिविशिष्ट विकलेन्द्रियों का विविध अपेक्षाओं से पर्याय-परिमाण-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 473 से 480 तक) में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय के अनन्तपर्यायों की सयुक्तिक प्ररूपणा की गई है। मध्यम अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय चतुःस्थानपतित क्यों ? मध्यम अवगाहना वाला एक द्वीन्द्रिय, दूसरे मध्यम अवगाहना वाले दूसरे द्वीन्द्रिय से अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य नहीं होता, अपितु चतुःस्थानपतित होता है, क्योंकि मध्यम अवगाहना सब एक-सी नहीं होती, एक मध्यम अवगाहना दूसरी मध्यम अवगाहना से संख्यातभाग हीन, असंख्यातभाग हीन, संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन तथा इसी प्रकार चारों प्रकार से अधिक भी हो सकती है। मध्यम अवगाहना अपर्याप्त अवस्था के प्रथम समय के अनन्तर ही प्रारम्भ हो जाती है। अतएव अपर्याप्तदशा में भी उसका सद्भाव होता है। इस कारण सास्वादनसम्यक्त्व भी मध्यम अवगाहना के समय संभव है। इसी से यहाँ दो ज्ञानों का भी सद्भाव हो सकता है। जिन द्वीन्द्रियों में सास्वादन सम्यक्त्व नहीं होता, उनमें दो अज्ञान होते हैं। जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रियों में दो अज्ञान को ही प्ररूपणा जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रिय जीवों में दो अज्ञान ही पाए जाते हैं, दो ज्ञान नहीं, क्योंकि जघन्य स्थिति वाला द्वीन्द्रिय जीव लब्धि. अपर्याप्तक होता है, लब्धि-अपर्याप्तकों के सास्वादनसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता, इसका कारण यह है कि लब्धिअपर्याप्तक जीव अत्यन्त संक्लिष्ट होता है और सास्वादन सम्यक्त्व किंचित् शुभपरिणामरूप है। अतएव सास्वादन सम्यग्दृष्टि का जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रिय रूप में उत्पाद नहीं होता। उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रिय जीवों में दो ज्ञानों को प्ररूपणा-उत्कृष्टस्थितिक द्वीन्द्रिय जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व वाले जीव भी उत्पन्न हो सकते हैं। अतएव जो वक्तव्यता जघन्यस्थितिक द्वीन्द्रियों के पर्यायविषय में कही है, वही उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रियों की भी समझनी चाहिए, किन्त उनमें दो ज्ञानों के पर्यायों को भी प्ररूपणा करना चाहिए। मध्यमस्थिति वाले द्वीन्द्रियों को वक्तव्यता-इनसे सम्बन्धित पर्यायपरिमाण की वक्तव्यता उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रियों के समान समझनी चाहिए, किन्तु इसमें स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित कहना चाहिए, क्योंकि सभी मध्यमस्थिति वालों की स्थिति तुल्य नहीं होती। जपल्यगणकष्ण द्वीन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित-एक जघन्यगुण कृष्ण, दूसरे जघन्यगुण कृष्ण से स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित होता है, क्योंकि द्वीन्द्रिय की स्थिति संख्यातवर्षों की होती है, इसलिए वह चतुःस्थानपतित नहीं हो सकता / मध्यम प्राभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय को पर्याय-प्ररूपणा-इसकी और सब प्ररूपणा तो जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी के समान ही है, किन्तु विशेषता इतनी ही है कि वह स्वस्थान में भी षटस्थानपतित हीनाधिक होता है। जैसे उत्कृष्ट और जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का एक-एक ही पर्याय है, वैसे मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का नहीं, क्योंकि उसके तो अनन्त हीनाधिकरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org