________________ पांचवां विशेषपद [पर्यायपद) ] [279 462. [1] जहण्णचक्खुदंसणीणं भंते ! नेरइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चति जहण्णचक्खुदंसणीणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! जहण्णचक्खुदंसणो णं नेरइए जहण्णचक्खुदंसणिस्स नेरइयस्स दव्यद्वयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहि णाणेहि तिहि अण्णाहि छट्ठाणवडिते, चक्खुदंसणपज्जवेहि तुल्ले, अचक्खुदंसणपज्जवेहि प्रोहिदसणपज्जवेहि य छट्ठाणवड़िते। [462-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [462-2 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'जधन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक के अनन्तपर्याय कहे हैं ?' उ.] गौतम ! एक जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक, दूसरे जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है; वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, तथा तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की अपेक्षा से, षट्स्थानपतित है। चक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसचक्खुदंसणी वि / [462-2] इसी प्रकार उत्कृष्टचक्षुदर्शनी नैरयिकों (के पर्यायों के विषय में भी समझना चाहिए।) [3] प्रजहण्णमणुक्कोसचक्खुदंसणी वि एवं चेव / नवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिते / [462-2] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) चक्षुदर्शनी नरयिकों के (पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / ) विशेष इतना ही है कि स्वस्थान में भी वह षट्स्थानपतित होता है। 463. एवं चक्खुदंसणो वि ओहिवंसणी वि। [463] चक्षदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों की तरह ही प्रचक्षुदर्शनी नै रयिकों एवं अवधिदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में जानना चाहिए। विवेचन-जघन्यादियुक्त अवगाहनादि वाले नारकों के विभिन्न अपेक्षानों से पर्याय-प्रस्तुत 9 सूत्रों (सू. 455 से 463 तक) में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना आदि से युक्त नारकों के पर्यायों का कथन किया गया है / जधन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक द्रव्य, प्रदेश और प्रवगाहना की दृष्टि से तुल्यजघन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना वाला एक नारक, दूसरे नारक से द्रव्य को अपेक्षा से तुल्य है, क्योंकि 'प्रत्येक द्रव्य अनन्तपर्याय वाला होता है, इस न्याय से नारक जीवद्रव्य एक होते हुए भी अनन्तपर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org